काले घने बादलों की
शीतल फुहार को पाकर
छूकर उसे
समेटकर
सहेजकर
हरियाये कुछ दूब, फूल, पौधे,
काँटों के बीच भी खिला रहा गुलाब
जब तक गीली रहीं जड़ें उसकी,
ऐसे ही
कुछ दिवस रही विपुलता पुष्प गुछों की,
गाते रहे तब ध्रुवक भ्रमर।
परन्तु, परिवर्तन तो निश्चित है
ऋतुएँ जब बदलती हैं
पड़ता है सूखा,
सारी नमी सोख लेती है उष्णता सूर्य की।
कुछ ऐसे ही रिश्तों पर भी
होता है असर वक़्त की बदलती ऋतुओं का
उपेक्षा, उदासीनता, दर्प, वितृष्णा की तपिश से
मुरझा जाते हैं सब रिश्ते,
उनकी गर्माहट और माधुर्य,
रह जाती हैं बनकर किस्से
फिर किस्से भी मुरझा जाते हैं
काल जनित तीव्र आतप से।

Previous articleकविताएँ मौन खड़ी हैं
Next articleबाबा का खेत
अनुपमा मिश्रा
My poems have been published in Literary yard, Best Poetry, spillwords, Queen Mob's Teahouse, Rachanakar and others

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here