राहुल बोयल का गद्य ‘नींद का उचटना’ | ‘Neend Ka Uchatana’, prose by Rahul Boyal
कभी-कभी दर्द दरिया नहीं होता, एक क़तरा भर होता है। किसी लेटे हुए ख़्याल की आँख से लुढ़ककर तकिये के गाल पर जा टपकता है। ऐसी सुबहें इतनी क़ातिल होती हैं कि हर आरजू बाजू में दुबकी होती है और शाम इतनी बुज़दिल कि कोई उम्दा ख़्वाब बुनने की ज़ुर्रत भर से काँप जाती है। अचानक नींद के उचट जाने पर एक बदहवासी क्यों आती है?
ऐसी बेचारगी और ये गुमां? कमाल है प्यारे!
टूटी हुई नींद पलकों से जोड़े तो अपना कहूँ तुझे।
हम ताज़िन्दगी ख़ुद को ख़रा साबित करने में ख़त्म हो जाते हैं और जाने कितनी चीज़ों और लोगों को खोटा कहकर मौज़ उड़ाते हैं। ग़म ऐसे नहीं उड़ा करते, लड़ना पड़ता है, कम से कम ख़ुद से तो लड़ना ही पड़ता है।
बिस्तर की बेतरतीबी से निकलकर किसी रात दिल दीवार का सहारा लेता हुआ सीढ़ियाँ उतरता है। आँगन के आसमान पर चाँद कोहरा ओढ़े हुये बैठा होता है। जिस्म के आँगन में पाँव रखते ही वो अब्रगाह से छूटकर मेरी बग़ल में बैठकर बतियाना चाहता है। वो बोल नहीं पाता मगर दिल सब सुन लेता है जैसे किसी प्यासे को सहरा में कोई प्यासा मिल जाता है तो प्यास की तासीर कुछ कम पड़ जाती है।
अलाव जल जाता है, नींद कब्र में वापस चली जाती है, दर्द धुंआं हो जाता है, झुलसते तिनकों की आवाज़ उस वक़्त धड़कन बन जाती है। ये मुहब्बत का वो महीना है जिसमें हवा बदतमीज़ हो जाती है। रात पूरी हो जाती है और मौसम की बेवफ़ाई से आहत सुबह कहीं छुप जाती है। अपने दो पांवों पर जिस्म उसको ढूंढ़ने निकलता है। थका-हारा दिन की दिहाड़ी लेकर घर की तरफ़ लौटता है। सुबह आकर जा चुकी होती है, वो शाम को कोसता है। झींगुरों के सिवा कोई ऐसी बातों पर कान नहीं देता।
किसी रात फिर नींद उचट जाती है और पीठ पर अचानक पंख उग आते हैं, दिल उड़ जाता है, लौटकर आना मुनासिब नहीं होता। जिसके लिए उड़ा था, अब वो इन्तजार करता है।
नींद उसकी पलकों से भी रिहा हो जायेगी एक दिन
ज़िन्दगी ऐसे ही दोनों की गुज़र जायेगी एक दिन।
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