‘Nidra Ya Ardhsatya’, a poem by Namrata Srivastava
सोचती हूँ-
निद्रा सुलाती है या
मृत्यु का साक्षात्कार कराती है,
है ये निद्रा या मृत्यु की झलक।
सत्य हर रात्रि मुझसे मिलता है,
मेरा आलिंगन करता है।
पर मेरी चेतना
कहाँ होती है तब?
किस गहनता ने घेरा था,
कि सत्य का ज्ञान ही ना हुआ उसे।
निद्रा के उन अस्पष्ट
और धुँधले चित्रों में
कैसा होता है संकेत?
क्या कहूँ मूढ़ अचेतन को;
जो ना बोल सकता है
और ना ही चल सकता है
भाव और संवेग विहीन
बस एक मूक दर्शक है।
मूर्ख अचेतन!
सत्य को पहचानता नहीं
और स्वप्नों को ‘सत्य’ समझता है
जो केवल भ्रम हैं, भ्रान्ति हैं,
असत्य व छलावा हैं, अन्यथा
कुछ भी नहीं।
सत्य अब भी चेतना से परे है।
पुनः सोचती हूँ-
कि मैं
हर रात्रि मरती हूँ
और प्रातः पुनः जीवित होती हूँ।
हर दिवस में रात्रि की नीरवता
और हर रात्रि में
दिवस की प्रज्जवलता;
और इसी श्वेत-श्याम से
उदित होती है-
स्वप्न-सतरंगी
जो इसीलिए प्रस्तुत करती है
अस्पष्ट एवं धुँधली तस्वीरें।
सत्य की प्रबोधना को
जान ले रे मन,
अन्त की इस वेदना को
मान ले रे मन।
क्योंकि…
हर रात्रि, रात्रि नहीं
कालरात्रि है, व
हर दिवस, दिवस नहीं
स्वर्ण दिवस है।