‘Paatrata’, Hindi Kavita by Rupam Mishra
प्रतिदिन उदास मन से विदा दे आती हूँ
उस अरीति से चलकर आए प्रेम को!
कि जाओ जहाँ तुम्हें तुम्हारा प्रतिदान मिले!
पर रोज़ लौट आता है वो
जैसे संझा को दुआरे की नीम पर
बसे पखेरू आते हैं
जैसे लौट आती है
मेरी थोड़ी-सी मुस्कुराहट
घोर उदासी के बाद भी
ख़यालों में तुम्हारी दस्तक होने पर
मैं अभी निश्चिंत ही हुई थी कि
विदा दे आयी हूँ एक असंग को!
तभी औचक इठलाते हुए
सामने खड़ा हो जाता है!
मैं खीझ कर कहती हूँ
अवमानना से मन नहीं भरता तुम्हारा!
आते ही, दो मनचली सखियाँ
गर्म खारा पानी उड़ेल देती हैं तुम पर
आख़िर इस जीर्ण मन में रहकर
क्या सुख मिल जाता है!
वो हँसकर अचूक दर्शन देता है
कि कितनी अबोध हो!
ये भी नहीं जानती कि
प्रेम कभी पात्रता नहीं देखता!
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