‘Pagle Sapne’, a poem by Mukta Sharma

सुबह कर्म-भूमि पर
धरते ही प्रथम पग
मैं ज्यों नतमस्तक।
अपने विद्यार्थियों की
सीपी-सी आँखों में
अपने सपनों के मोती
ख़ामोशी से जड़ देती हूँ।

धूप ढले, संदली शाम में
छत पर रखे सब गमलों में
पानी लगाते हुए, मैं
मिट्टी में बो देती हूँ
अपने सपनों के बीज
और ख़ूब हरियाली
सहेज लेती हूँ।

इसी गहमागहमी के दौरान
सुबह से लेकर के सांझ
फिर सांझ से सुबह तक
अपने घर के रौशन चिराग़ों की
मुस्कान की लड़ियों में
जड़े रंग-बिरंगे सपनों संग
मैं खुलकर हंस लेती हूँ।

अब, तुम क्या समझे?
कि संदूक ख़ाली हो गया?
नहीं जनाब!!
यह शब्दों के सुरमई पंछी
जो धवल आसमानों में
उड़ने को पंख फहराते हैं।
वो !! ऊपर !! दूर !!
मुझे मेरे सपनों संग
अंतरिक्ष तक ले जाते हैं।