इन दिनों
कैसी झूल रही गौरेया केबल तार पर
कैसा सीधा दौड़ रहा वह गली का डरपोक कुत्ता
कैसे लड़ पड़े बिल्ली के बच्चे चौराहे पर ही
कैसे बग़ैर कान हिलाए गाय चर रही सड़क किनारे
कैसे छुपके सरपट दौड़ा रहा था दुपहिया
वह मन्दबुद्धि युवक घायल होने से पहले
कैसा हतप्रभ था उसका बड़ा भाई
कि इसने कब सीखी यह चालाकी सबके रहते
कैसे चूमती होंगी मछलियाँ समुन्द्र-तट की ख़ामोशी को
कैसे तैरती होंगी वेनिस के साफ़ कैनाल्स में डॉल्फिन
कैसे भूली होंगी मुर्ग़ियाँ गिनती अपने अण्डों-चूजों की
कैसे हड़बड़ा गयी होंगी बकरियाँ बढ़ते कुनबे को देख
खिड़की से बाहरी दुनिया में झाँकते हुए
यह बेटू की प्रथम कविता थी, जिसका
समापन इस बुदबुदाहट पर हुआ
“आज पहली बार जाना कि
सभी गौरैया के पास हर भाषा के लोकगीत हैं
जिन्हें वे पूरा दिन गुनगुना सकती हैं!”
“पहली बार! हाँ,
और इन इक्कीस दिनों तक
दुनिया की बहुत सारी सुन्दर व अकल्पनीय घटनाएँ पहली बार ही दर्ज़ होंगी!” कहकर मैंने खिड़की पूरी खोल दी।