फिर भी क्यों मुझको तुम अपने बादल में घेरे लेती हो?
मैं निगाह बन गया स्वयं
जिसमें तुम आँज गईं अपना सुर्मई साँवलापन।

तुम छोटा-सा हो ताल, घिरा फैलाव, लहर हल्की-सी,
जिसके सीने पर ठहर शाम
कुछ अपना देख रही है उसके अंदर,
वह अंधियाला…

कुछ अपनी साँसों का कमरा,
पहचानी-सी धड़कन का सुख,
– कोई जीवन की आने वाली भूल!

यह कठिन शांति है… यह
गुमराहों का ख़ाब-क़बीला ख़ेमा :
जो ग़लत चल रही हैं ऐसी चुपचाप
दो घड़ियों का मिलना है,
– तुम मिला नहीं सकते थे उनको पहले।

यह पोखर की गहराई
छू आयी है आकाश देश की शाम।

उसके सूखे से घने बाल
हैं आज ढक रहे मेरा मन औ’ पलकें,
वह सुबह नहीं होने देगी जीवन में!
वह तारों की माया भी छुपा गई अपने अँचल में।
वह क्षितिज बन गई मेरा स्वयं अजान।

शमशेर बहादुर सिंह
शमशेर बहादुर सिंह 13 जनवरी 1911- 12 मई 1993 आधुनिक हिंदी कविता की प्रगतिशील त्रयी के एक स्तंभ हैं। हिंदी कविता में अनूठे माँसल एंद्रीए बिंबों के रचयिता शमशेर आजीवन प्रगतिवादी विचारधारा से जुड़े रहे। तार सप्तक से शुरुआत कर चुका भी नहीं हूँ मैं के लिए साहित्य अकादमी सम्मान पाने वाले शमशेर ने कविता के अलावा डायरी लिखी और हिंदी उर्दू शब्दकोश का संपादन भी किया।