फिर भी क्यों मुझको तुम अपने बादल में घेरे लेती हो?
मैं निगाह बन गया स्वयं
जिसमें तुम आँज गईं अपना सुर्मई साँवलापन।
तुम छोटा-सा हो ताल, घिरा फैलाव, लहर हल्की-सी,
जिसके सीने पर ठहर शाम
कुछ अपना देख रही है उसके अंदर,
वह अंधियाला…
कुछ अपनी साँसों का कमरा,
पहचानी-सी धड़कन का सुख,
– कोई जीवन की आने वाली भूल!
यह कठिन शांति है… यह
गुमराहों का ख़ाब-क़बीला ख़ेमा :
जो ग़लत चल रही हैं ऐसी चुपचाप
दो घड़ियों का मिलना है,
– तुम मिला नहीं सकते थे उनको पहले।
यह पोखर की गहराई
छू आयी है आकाश देश की शाम।
उसके सूखे से घने बाल
हैं आज ढक रहे मेरा मन औ’ पलकें,
वह सुबह नहीं होने देगी जीवन में!
वह तारों की माया भी छुपा गई अपने अँचल में।
वह क्षितिज बन गई मेरा स्वयं अजान।