कील

एक साल
तीन सौ पैंसठ दिन
पूरे आठ हज़ार सात सौ साठ घण्टे
एक कील के सहारे
दीवार पर टंगे हुए हैं

मेरे साथियों
आओ, मुझे तपाओ
आग की भट्ठी में मुझे झोंक दो
मुझ पर हथौड़े की तरह बरसो
कि मैं दीवार में धंसना चाहता हूँ

मैं वह कील होना चाहता हूँ
जिसके सहारे टाँगी जा सकें
कम से कम
साल भर की सम्भावनाएँ
आकाँक्षाएँ
और उम्मीदें सभी…

भाव

मण्डी में
सब्ज़ी बेच रही स्त्रियाँ
भरकर अपने चुल्लू में
छिड़कती हैं पानी
सब्ज़ियों पर
कि उनका भाव न गिरे

कुछ उसी तरह
मैं भी
गिरते हुए लोकतन्त्र को बचा लेना चाहता हूँ…

आख़िरी किश्त

जिस्म जब शिथिल पड़ने लगे
रूह अलविदा कहने को बेताब हो
बची-खुची
चन्द साँसें
जब फेफड़ों में भर रहा होऊँगा मैं
उन आख़िरी पलों में
आख़िरी बार
मिलना चाहूँगा तुमसे
ताकि तुम्हारे साथ जिए हुए
ख़ुशनुमा एहसास की आख़िरी किश्त अदा कर सकूँ।

आख़िरी दिन

उम्र के इस पड़ाव पर
जब जी रहा हूँ
बचे-खुचे आख़िरी दिन

ज़िन्दगी
काठ की भारी-भरकम सन्दूक़-सी लगती है
जिसकी सुध लेते हैं अपने
जब तलाशते हैं
खोए हुए काग़ज़ात
मगर, अच्छा लगता है मुझे
बहुत अच्छा लगता है
लौटते हैं जब ये मेरी ओर
थकी निगाह लिए

अक्सर दो जोड़ी बुझती आँखें लिए
यादों की तरफ़ लौटता हूँ

यादें
मोमबत्ती की लौ सरीखी
हिलतीं, डुलतीं, झेंपतीं, मुड़तीं
कब धुआँ हो जाएँ पता नहीं
शायद, मेरी आख़िरी साँस
इन्हीं गलियों में अटक जाए कभी
कुछ पता नहीं

जब घर के सामने सड़क पर
बच्चे हुड़दंग मचाते हैं
मैं बहुत चीख़ता हूँ
बहुत खीझता हूँ
चिल्लाता हूँ
उन्हें भगाता हूँ
जाने कहाँ से मुझमें ताक़त आ जाती है

बच्चे मुझे चिढ़ाते हैं
लेकिन सच कहूँ
मेरा जीतना
उनका चिढ़ाना
अच्छा लगता है बहुत
शायद, तालाब को भी अच्छा लगता होगा
किसी का कंकड़ फेंकना

ये बच्चे हैं
मेरी खीझ नहीं समझेंगे
बड़े भी नहीं समझते
शायद, सब कुछ समझने की एक उम्र होती है
मैं भी तो अब समझ रहा हूँ

बहुत भयावह है यह उम्र
ख़ामोशी भीतर तक बस जाती है
आवाज़ निकालो तो
कहीं दबकर रह जाती है
शायद, अटक जाती है कहीं
दो चौखटों के बीच
जहाँ सन्नाटे का राज है
जहाँ सबकुछ टूटता है बस
जहाँ सबकुछ बिखरता है बस

देख रहा हूँ
मौत को क़रीब से
शायद, अटक जाऊँ
घड़ी की चलती सुइयों की तरह
बैट्री जिसकी हो जाती है ख़त्म
क्या पता भरी हुई साँस
फेफड़े में ही रह जाए
कोई आख़िरी इच्छा ज़ुबाँ को न छू पाए
कोई चेहरा साथ न हो
मैं माँगता रहूँ
चंद पल, चंद साँस
अलविदा के लिए
शायद मिले शायद न मिले

मैं तो अब मुंतज़िर हूँ
हवा के उस झोंके का
जो उड़ा ले जाती है
शाख से चिपके
सूखे पीले पत्ते को
समय के उसी गह्वर में
जहाँ से उसकी यात्रा शुरू हुई थी
और फिर शुरू होगी…

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गौरव भारती
जन्म- बेगूसराय, बिहार | शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली | इन्द्रप्रस्थ भारती, मुक्तांचल, कविता बिहान, वागर्थ, परिकथा, आजकल, नया ज्ञानोदय, सदानीरा,समहुत, विभोम स्वर, कथानक आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित | ईमेल- [email protected] संपर्क- 9015326408

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