Poems by Gaurav Bharti
बालकनी अब उदास दिखने लगी है
बालकनी
अब उदास दिखने लगी है
दो कुर्सियाँ पड़ी हैं
दोनों ख़ाली
कोई नहीं जाता उधर
क्योंकि कोई है ही नहीं
मैं भी नहीं
बस एक शाम है
जो कभी-कभी बैठ जाती है
एक कुर्सी पर
रात के इंतज़ार में
कभी-कभी
धूप का एक टुकड़ा
कोने में पड़ी धूल पर जम जाता है
कभी-कभी
हवा के थपेड़े खाकर
कुछ पत्तियाँ
फ़र्श पर बिखर जाती हैं
कुछ डिबियाँ यहाँ-वहाँ रखी है माचिस की
कुछ तीलियाँ बेतरतीब सी बिखरी हैं
जले-अधजले
सिगरेट के टुकड़े पड़े हुए हैं
जिसकी कशें
किसी के ख़्याल में
सीने को जलाने के लिए भरे गए थे
गमलों में
कुछ पौधे लगे थे
सब सूख चुके हैं
बस एक कैक्टस बचा है
जो ज़िंदा है
क्योंकि उसने अकेले जीना सीख लिया है
बालकनी
अब उदास दिखने लगी है
दो कुर्सियाँ पड़ी हैं
दोनों ख़ाली
कोई नहीं जाता उधर
क्योंकि कोई है ही नहीं
मैं भी नहीं…
मेरी प्यारी दोस्त
मुझे पता है
तुम्हें चाहिए बस एक जोड़ी आँखें
जिसमें तुम ख़ुद को निहार सको
और महसूस कर सको
आँसुओं की चंद बूँदें
अपने कांधे पर
जो सिर्फ़ तुम्हारे लिए बहे हों
मुझे पता है
तुम्हें चाहिए एक खुला आकाश
जिसमें तुम मनचाहे तारे टाँक सको
और रंग सको सूरज को उन रंगों से
जो तुमने बचपन में
तितलियों के पीछे भागते हुए जमा किए होंगे
मुझे पता है
तुम्हें चाहिए एक घर
जहाँ थककर लौटा जा सके
उसी तरह
जैसे लौटते हैं ‘पिता’
मुझे पता है यह सब
क्योंकि मेरी माँ को भी यही चाहिए था
और शायद माँ की माँ को भी
मेरी प्यारी दोस्त
ख़्वाब और हक़ीक़त के बीच
एक दूरी होती है
तुम्हें वह दूरी तय करनी है
तुम्हें चौखटें गिरानी हैं…
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में
तस्वीरें डराती हैं
असहाय रुदन किसी दुःखस्वप्न से मालूम होते हैं
मगर ये हक़ीक़त है मेरी जां
कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में
सत्ताधारियों के लिए
ठंडे होते मासूम जिस्म महज आंकड़े हैं
देश के भविष्य नहीं
उनके अपने आंकड़े हैं
उनका अपना विकास है
सबसे अलहदा भविष्य देखा है उन्होंने
लेकिन मैं उस भविष्य का क्या करूँ
उस विकास का क्या करूँ
जो उन बस्तियों से होकर नहीं गुज़रता
जहाँ रोज़ भविष्य
वर्तमान का शिकार हो रहा है
इस अर्थतंत्र में
इस बाज़ार में
जहाँ सबकुछ दांव पर लगा है
मेरी एक छोटी सी ख़्वाहिश है कि
उनका देश रहे न रहे
हमारा मुल्क रहना चाहिए
बस्तियाँ रहनी चाहिए
किलकारियाँ रहनी चाहिए
तितलियाँ रहनी चाहिए
और रहनी चाहिए खिलौनों की गुंजाइश…
नाटक जारी है
यह कमरा नहीं है
मेरी ज़िन्दगी की चौहद्दी है
इस चारदीवारी के बाहर की दुनिया
मुझे नहीं पता
जानने की कोशिश
अब करती भी नहीं
इन दीवारों में क़ैद है
मेरी पहली चीख़
वह शायद बहुत लम्बी थी
उस दिन एक रिश्ता बना था
दुनिया के हर मर्द से
हर मर्द मेरी नज़र में एक ग्राहक
सिवाय इसके कुछ नहीं
वह कुछ हो भी नहीं सकता
एक जिस्म के अलावा मैं भी कुछ नहीं
जितनी सीलन और पपड़ियाँ ओढ़े यह दीवार है
उससे कहीं ज़्यादा
चेहरे छपे है मेरे दिमाग़ में
एक अजीब सी भूख
क़तई इंसानी नहीं
जितनी झुर्रियाँ चेहरे पर
उतनी ज़्यादा भूख
तरह-तरह के चेहरे
तरह तरह की उँगलियाँ
मेरे जिस्म पर रेंगती
तमाचों की बरसात
सन्नाटा
कोई चीख़ नहीं
कोई आह नहीं
कोई प्रतिक्रिया नहीं
उठती चीख़ दब कर रह जाती है कहीं
उठते हाथ हवा में झूल कर रह जाते हैं
मन होता है
मैं भी झूल जाऊँ
छत से लटकते इस पंखे में, मगर
एक ही रात में कितनी बार
दुनिया से अलग दुनिया है मेरी
हर सुबह लेकर आती है नींद
नींद जिसमें ख़्वाब नहीं पलते
दहशत पलती है
बहुत सारे दरवाज़े हैं
मगर सब बंद
अँधेरा ही पालता है मुझे
उजाले से डर लगता है
बहुत बहुत ज़्यादा
जब पशु हमलावर होता है
सामने वाले प्रतिद्वंदी को मिटा देना चाहता है
ख़त्म कर देना चाहता है वजूद
जितनी ऊब, खीझ, सन्नाटा होता है
सब निकाल देना चाहता है
एक साथ, एक बार
वह नोचता है पंजे से
उसके दांत अचानक लम्बे हो जाते हैं
नाख़ून इरादतन नुकीले
वह छोड़ जाना चाहता है निशान
क्योंकि उसे पसंद है
उसका नाम
वह मोहर बनना चाहता है
वह छप जाना चाहता है
बहुत निशान हैं
कुछ बाहर
कुछ भीतर
खिड़कियों से झाँकती नज़र
उस पार जब देखती है
हसरतें आँखों में उमड़ने लगती हैं
हवा का एक झोंका
उन हसरतों को कटी पतंग की तरह कहीं उड़ा ले जाता है
वह टंग जाती है किसी खूंटी से
जहाँ वहशी धूप उसे जला डालती है
फूल कुम्हला जाते हैं
ख़ुशबू हवा हो जाती है
मैं पर्दा गिरा देती हूँ
अब अँधेरा है
कोई उजास नहीं
कोई ख़्वाब नहीं
कोई सवाल नहीं
कोई प्रतिकार नहीं
नाटक जारी है…
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