शहर

1

किसी पुराने शहर की
गलियों के पत्थर उखड़ने लगे हैं
कुछ बदरंग इमारतें ढह गई हैं

बेवश एक बुज़ुर्ग
आसमान देखता है
और अपनी
मौत का इंतज़ार करता है
उस बुज़ुर्ग की तरह
शहर भी आख़िरी साँस लेता है।

2

शहर और बूढ़े का रिश्ता
एक-सा नहीं है

शहर तब भी था
जब वह बूढ़ा बच्चा था

शहर तब भी होगा
जब वह बूढ़ा नहीं होगा

फिर शहर और बूढ़े का
कौन-सा रिश्ता है
जिससे बँधा बुज़ुर्ग अपनी
मृत्यु को लगातार स्थगित करता जा रहा है।

3

शहर एक क़ब्रिस्तान है
जिसमें सभ्यता की यात्राएँ
दफ़्न हैं।

4

मुझे उस शहर से इश्क़ था
जिसमें मेरी प्रेमिका का बचपन गुज़रा

मैं उस शहर दुबारा नहीं जाना चाहता
जहाँ मेरी चाहतें जवान हुईं

मैं उस शहर बार-बार गया
जिसने मुझे रोज़गार नहीं दिया।

5

शहर
अपने विस्तार में
गाँवों को निगल लेता है
गोया साम्राज्यवाद की क़ब्र से निकला
पूँजीवाद की हड्डियों के चूरमे से बना हो

मुझे शहर से सहानुभूति है
गाँवों से दर-बदर हुए
लोगों को छाँव शहर ने दी

शहर सिर्फ़ ज़हर नहीं
जहर की काट भी है।

विदाई

यह अनंत मृत्यु का दौर है
इतना कि मर जाएँ
और
कोई अंतिम विदाई न दे

यह मनुष्य के ही नहीं
ईश्वर के भी मर जाने का वक़्त है

ऐसे वक़्त में
अगर मनुष्यता जी गयी
शायद ईश्वरत्व भी बच जाए।

उपस्थित-अनुपस्थित

(आदरणीय गुरु व कवि श्रीप्रकाश शुक्ल के लिए)

जब सबकी उपस्थिति
दर्ज हो रही हो
ठीक ऐसे वक़्त में
मैं अनुपस्थित हो जाना चाहता हूँ।

यह क़तई भीड़ से अलग दिखने की चाह नहीं है
न ही अपने को विशिष्ट मान लेने की ज़िद
न ही कोई तनाव
जो अभाव के नैराश्य से उपजा हो

इंकार यथार्थ से पलायन हो हर बार
यह कोई आवश्यक शर्त नहीं है इंकार की
कभी-कभी अनुपस्थिति का
अल्पमत
कविता की तरह
एक ज़रूरी चीज़ जान पड़ती है

उपस्थित-अनुपस्थिति
अपने को अथवा समूची मानवता
को बचाने का एक उपक्रम हो सकता है

जब अधिकांश भीड़
अथवा बहुमत
अपनी उपस्थिति सायास दर्ज करा रही हो
एकमात्र अनुपस्थिति सबसे सच्चा प्रतिरोध हो सकता है
कि मैं इन सब में शामिल नहीं हूँ।

कई बार एकमात्र अनुपस्थिति
उपस्थिति का सबसे सशक्त माध्यम है
और इस बात को प्रेम सबसे ख़ूबसूरत तरीक़े
से साबित कर सकता है
कि अनुपस्थित-उपस्थिति रच रही होती है अपनी उपस्थिति चुपचाप!

सचाई

बंद कमरे
की गुप्त संधियाँ
किवाड़ के चरमराते चुलों की चिचियाहट
की तरह बाहर निकल आती हैं

नहीं रहता कोई भ्रम
बहुत देर तक नहीं टिकती कोई
दुरभिसंधि

सचाई बहुत हल्की चीज़ होती है
अंततः ऊपर आ ही जाती है
एक न एक दिन।

देना तो

(विजयदेव नारायण साही की स्मृति में)

हे दाता!
देना तो इतनी उदारता देना
कि दुश्मनों की तेरहवीं तक जाने भर का प्रेम बचा रहे

हे देव!
इतनी भद्रता देना
कि वह धोखा या प्रवंचना न लगे
और दोस्तों की ग़लतियों को माफ़ कर सके

हे ऋत!
देना तो सचाई का वरदान देना
कि अपनी ख़ातिर
झूठ न बोल सकूँ

हे ऋषि!
नफ़रत देना तो
उनके प्रति जो हत्यारे हों
ऐसी नफ़रत न दे देना कि
दोस्त की सफलता पर अवसाद में चला जाऊँ

हे महाप्रभु!
जीवन में सब कुछ देना
प्रेम, दोस्ती, घृणा, नफ़रत सब
लेकिन काइयाँपन न देना

हे प्रकृति!
देना वह जो मुझे कम से कम एक मनुष्य बनाए
विनय बचा रहे मुझमें
और जो कभी मुझसे कुछ माँगने आएँ
उनके लिए कुछ न कुछ बचा रहे
और इतना बना रहे कि
लेन-देन में कोई संकोच न रहे।

कुमार मंगलम
कवि और शोधार्थी, इग्नू, दिल्ली में रहनवारी, बनारस से शिक्षा प्राप्त की। कला, दर्शन, इतिहास और संगीत में विशेष रुचि। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ और आलेख प्रकाशित।