आपदकाल में
कहीं पहुँचने का रास्ता
इतना भी पथरीला नहीं होता
जितनी भारी होती है मन की गठरी
बिवाइयों भरे पाँव से दिल नहीं दुखता
दुखता है भितरघात से
प्रेम के बदले जो प्रेम न दे सके
वो कैसा मानुष बन्धु
आपदकाल में अपनी बुद्धि से ज़्यादा भीतर के भय को चुनना
वही बचाएगा अकाल मृत्यु से
डायनासोर नहीं बचे
जो समझते रहे सर्वश्रेष्ठ, सबसे उत्कृष्ट
बचते रहें है तिलचट्टे लाखों वर्ष से
जिन्हें समझा जाता रहा निकृष्ट
काल का बाण
ज़मीन से जुड़ा हर आदमी
आज पुरानी दीवारों की मानिन्द चटकने लगा है
मगर चटचट-सी कोई आवाज़ नहीं होती,
ख़ामोशी के शामियाने के नीचे
हो रहा ये षड्यन्त्र
काल का छोड़ा गया कोई बाण है?
जो सबको बींधता ही जा रहा है!
शायद कोई बच नहीं पाए
चूँकि निशाना है अचूक
मगर कैसे मान लें हम कि हमारी ज़िन्दगी की यह अन्तिम शाम है!
हमारे मस्तिक पर तो किसी का वश नहीं है
अतः आस्था के विशाल सागर में गोते लगाना होगा
कि सूरज अपनी रौशनी के साथ
एक दिन अवश्य उदित होगा
जो काल के इस षड्यन्त्र को जलाकर राख कर दे
और हम अपनी ग़लतियों को ठीक कर
फिर से अपनी ज़िन्दगी जी सकें!