मध्यरात्रि का स्वप्न
तुम मेरे लिए
एक पुच्छल तारा हो
जिसे जब भी देखती हूँ
तो लगता है यह कहीं
आख़िरी बार तो नहीं!
फिर अपनी पलकों के टूटे हुए
एक बाल को हाथों पर रखकर
ब्रह्माण्ड से तुम्हे माँग लेती हूँ…
नहीं देखा ईश्वर
मैंने नहीं देखा ईश्वर को
कभी महसूस नहीं किया उसके स्पर्श को
नहीं देखा प्रार्थनाओं को पूरा होते
बस तुम्हें खिलखिलाते हुए देखती हूँ
तो गूँजने लगती है शंखध्वनि-सी
उभरने लगता है ईश्वर का चेहरा
तुम्हारे स्पर्श की ऊष्मा में
मैं पाती हूँ स्पर्श देवत्व का
तुम्हारा साथ ही है
प्रार्थनाओं का पूरा होना…
तोहफ़े
सबकी तरह मुझे भी पसन्द हैं तोहफ़े
गुलाब मत लाना
सूखकर एक दिन बिखर ही जाना है
नहीं सम्भाल पाऊँगी मैं महक
बिखरती पत्ती-सा बिखर न जाए
कोई हिस्सा जीवन का
तोड़ लाना काँटे वाली टहनी कोई
दर्द कोई सालता रहे उम्र-भर, ज़रूरी है ना
काजल लाना तुम
ताकि छुपा सकूँ तुम्हारी
दी हुई उदासी को आँखों में उतरने से
थोड़ा वक़्त चुरा लाना कहीं से
जी लूँ साथ तुम्हारे
तुम्हारी-सी बेफ़िक्री लाना मेरे लिए
जब तुम नहीं होते हो तो
मैं भी हो जाऊँ बेफ़िक्र
तारे न तोड़ना तुम
उन्हें छोड़ देना कि
जूड़ा नहीं बांधती मैं
बस अपने मन को बांध लेना मुझसे
लाना तुम अपनी हँसी की सौगातें मेरे लिए
उदासियाँ दे जाना अपनी
भर जाना मेरी अंजुरी
अपने नरम एहसासों से
मत जताना अपनी मोहब्बत
बस एक प्याली चाय का साथ बाँट लेना मुझसे
परवाह ले आना थोड़ी-सी
बहुत बेपरवाह हो गयी हूँ आजकल, ख़ुद से ही!
रमणिका गुप्ता की कविता 'तुम साथ देते तो'