Hindi Poems: Ruchi

शाश्वत छल

अमूमन दुनिया की सभी औरतों ने,
कभी न कभी महसूस किया,
ख़ुद का वजूद इक देह मात्र।

देह से देह अलग होते ही,
थके क़दमों से लौट चलते हैं,
प्रेम के तमाम दावे ।

उन क्षणों में किये गए,
वादों की उम्र लम्बी नहीं होती,
दम तोड़ देते हैं साँसों के संयत होने तक।

औरतें उठती हैं, झाड़ देती हैं,
देह के साथ ख़्याल अपना,
और बालों को समेट, बिखरने से बचाती हैं ख़ुद को।

साथी की परमप्रिया होने का भ्रम,
मन पर हल्दी-चूने-सा लगा,
ढाप लेती हैं तन क़रीने से।

एक बार पुनः आँखों में देख साथी की,
आश्वासन-सा आलिंगन चाहती हैं,
पर सन्तुष्ट बन्द आँखों को चूम साथी की, थाम लेतीं हैं ख़ुद को।

प्राथमिकता न रही

मैं कभी किसी की प्राथमिकता नहीं रही,
सदैव विकल्पों-सा चयनित हुई।
हाँ विकल्पों में सदैव प्रथम पाया ख़ुद को ,
मेरे अलावा विकल्प की सूची सूनी ही रही।
मैंने विकल्पों में श्रेष्ठ माना स्वयं को।

मैं कभी विशेष ना रही किसी के लिए,
बस शेष ही स्वीकार्य हुई।
हाँ शेष में हमेशा सराहा गया मुझको,
मेरे सिवा कभी कुछ न रह पाता शेष,
मैंने शेष रह जाना ही अपने लिए विशेष माना।

मैं कभी मंत्र मुग्ध ना कर सकी किसी को,
अपलक निहारे जाने वाला एक दृश्य।
अपलक टिकती हैं मुझ पर वो आँखें,
जो सदा से दृष्टिहीन रहीं।
मैंने दृष्टिहीनों को मुग्ध माना, आत्ममुग्धता के लिए।

मैं कभी तृप्ति ना रही किसी की,
सदैव अहं तुष्टी का साधन मात्र।
साधनों सा सदैव हाथों हाथ रही,
साधनों सा उपयोग होना,
मैंने ख़ुद की साधना जाना और माना।

मुझसे कभी किसी की सहमति नहीं रही,
असहमति में मैं सर्वोच्च रही।
सबकी असहमति से मैं सहमत रही हमेशा,
मैंने अपने असहमत से वजूद को,
किरदार से ख़ुद के, सहमत माना।

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