गंगा में छोड़कर आऊँगी

उन दिनों मैं कोलकाता था
जिन दिनों
रामू काको क़र्ज़ के मारे
खेत की झोंपड़ी में
ज़हर पीकर
कर ली थी आत्महत्या

उन दिनों मैं आसाम था
जिन दिनों
गली में छाणां चुगती
छोरी के साथ
हुआ था बलात्कार
गुवाड़ एकदम चुप रहा

उन दिनों मैं पुणे था
जिन दिनों
अब्दुल चाचा की गाय
अर्धरात्रि में
ले गया था कोई
खूँटें से खोलकर

उन दिनों मैं दिल्ली था
जिन दिनों
ऊँट-गाडे पर लादे सामान
रो रहे थे
कई दलित परिवार

उन दिनों मैं हिसार था
जिन दिनों
खेताराम को
अपने बापू के ओसर के लिए
बेचना पड़ा
गाजर, बोरिया के भाव
दसेक बीघा खेत

उन दिनों मैं मारवाड़ जंक्शन था
जिन दिनों
गिर गये थे
अडाण से तीन मज़दूर
गाँव नहीं गया उनके पास

जब आज मैं घर आया
तो देखता हूँ
गा रहे थे मोर शोकगीत
गाँव की जल चुकी चिता में
विधवा बुआ
चुग रही थी अस्थियाँ
मुझे देखकर बोली-
“आओ.. बेटा.. आओ
अब इन्हें
गंगा में छोड़कर आऊँगी
क्या तुम मेरे साथ चलोगे?”

यह बेटी किसकी है

अब जब ससुराल से बेटी आती है मायके
तो बस स्टैंड उतरकर
हाथों में थैला लिए
चली जाती है चुपचाप
गुवाड़-गली से होती हुई घर की तरफ़

गाँव नहीं पळूसता बेटी का सिर
और कहाँ पूछता है
ससुराल वालों के हाल-चाल
मेह-पाणी, खेती-बाड़ी के समाचार

भतीजे सामने दौड़कर
प्रणाम करते हुए
नहीं लेते हैं
बुआ के हाथों में से थैला
और थैले में
कहाँ खोजते हैं नींबू रस की फाँक

गली के दूसरे, तीसरे मोड़ से
बग़ैर कुछ बोले
गुज़र जाती है सहेलियाँ
कुहनियाँ मारती हुई
कहाँ करती है हँसी-ठिठोली

घर आकर माँ-बापू को प्रणाम करती
साड़ी के पल्लू को सिर से हटाती हुई
बैठ जाती है
लम्बी साँस लेकर खटिया पर
भाई सिर पळूसकर
चला जाता है काम से कहीं बाहर
और बापू ताश खेलने के लिए
चले जाते है गुवाड़ में
फिर माँ-बेटी
करती रहती है दुःख-सुख की बातें

उसे आए चार-पाँच दिन ही तो हुए
कहाँ गई हैं गाँव की औरतें
विदाई गीत गाती हुईं
सिवाय माँ के
बस स्टैंड तक छोड़ने के लिए
खड़ी रहती है वो मौन धारे
बस के इंतज़ार में
सिर्फ़ एक डोकरा खाँसता हुआ
किसी लड़के से पूछता है-
“यह बेटी किसकी है?”
मोरनी की तरह आँसू ढळकाती
उनके तरफ़ देखती
और साड़ी के पल्लू को
सिर पर लेती हुई चढ़ जाती है बस में।

किसान की औरत

किसान की औरत जब
दूह रही होती है
गाय, भैंस या बकरी
तो दूध की धार
…रचती है
दुनिया का महानतम संगीत

किसान की औरत जब
गोबर का बठळ भर
थाप रही होती है थेपड़ियाँ
तो थेपड़ियों में
…समेटती है
दुनिया-भर की सभी औरतों का दुःख

किसान की औरत जब
कर रही होती है
खेत में लावणी
तो चूड़ियों की खनखन
…लिखती है
कवियों की पत्नियों की विरह वेदना

किसान की औरत जब
लगाती है माथे पर बिंदी
और भरती है
माँग में सिन्दूर
तो धरती हो जाती है सुहागीन

किसान की औरत जब
पसीने से
लगा रही होती है आटा
तो तवे पर होता है
दुनिया-भर के सभी भूखों का रुदन

और किसान की औरत जब
सेंक रही होती है रोटी
तो रोटी की भाप
धुंवे का थाम हाथ
खड़ी हो जाती है संसद में जाकर नंगी।

Book by Sandeep Pareek Nirbhay:

Dhore Par Khadi Sanwli Ladki - Sandeep Pareek Nirbhay

संदीप निर्भय
गाँव- पूनरासर, बीकानेर (राजस्थान) | प्रकाशन- हम लोग (राजस्थान पत्रिका), कादम्बिनी, हस्ताक्षर वेब पत्रिका, राष्ट्रीय मयूर, अमर उजाला, भारत मंथन, प्रभात केसरी, लीलटांस, राजस्थली, बीणजारो, दैनिक युगपक्ष आदि पत्र-पत्रिकाओं में हिन्दी व राजस्थानी कविताएँ प्रकाशित। हाल ही में बोधि प्रकाशन जयपुर से 'धोरे पर खड़ी साँवली लड़की' कविता संग्रह आया है।