Poems: Shalini Pandey

पहाड़ की ओर

किराये के
मकान की
बालकनी से
बाहर झाँकते हुए
एक दिन
उसने पूछा –
सरु,
कौन-सा संगीत
सुनाई देता है
तुम्हें यहाँ?
कौन-सा नज़ारा
दिखता है
किवाड़ों को
खोलने पर?

कंधे पर,
थोड़ा-सा
ख़ुद को टिकाकर
वह बोला-
देखो यह दीवार!
कितनी बड़ी है,
लेकिन
एक भी
दूब का तिनका
नहीं उग पाता
इस पर,
कितनी
विषाक्तता है
साँसों में
भीतर इन
कोरी दीवारों के…

कुछ देर
वह मौन रहा…
और साँसें जुटाकर
पुनः बोल उठा –
सरु चलो ना!
लौट चलते हैं
वहाँ को
जहाँ से आरम्भ हुए,
चलो ना
लौट चलते हैं
अपने पहाड़ की ओर…

तुम चलो

तुम चलो ना मेरे साथ
किसी पहाड़ पर,
वहीं बसाएँगे संसार
प्यार और विश्वास का।

वहाँ
बर्फ़ की नदियाँ सींचती होंगी
हमारे आँगन को,
चीड़ के पत्तों से पटे रास्ते
ताकते होंगे हमारी राह को,
प्रभात किरणें आतुर होंगी
हमारा माथा चूमने को,
देवदार की छाव फैली होगी
हमें बाहों में कसने को

वहाँ
नीले अम्बर की चादर ओढ़े
हरे बुग्याल के सीने से लगकर
हम लेटेंगे,
नदियों के बहाव से उत्पन्न
संगीत को सुनेंगे,
और संध्याकाल में
चोटी से उतरते सूर्यास्त को
क्षितिज पर बैठकर विदा देंगे।

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शालिनी पाण्डेय
जब कभी कोई भाव या घटना अंतर्मन को बैचैन कर देती है तो शब्दों के सहारे उसे पिरोने की कोशिश करती हूँ.

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