Poems: Sudhir Sharma

गुब्बारे

आधी रात को नींद खुली थी घबराकर
छूट गयी थी हाथ से गुब्बारे की डोर
गुब्बारा जो बूढ़े फेरी वाले से
दर्जन भर आँसू के बदले पाया था,
मुट्ठी में जो रात को भींच के सोये थे
छूटके हाथों से छत में जा अटका था
अम्मा ने डण्डे से उसे निकाला था

आधी रात को नींद खुली है घबराकर
बरसों बाद ये सोच रहा हूँ हाथों से
छूट गयी है कितने गुब्बारों की डोर
गुब्बारे जो बूढ़े वक़्त की फेरी से
आँसू और साँसों के बदले पाए थे
गुब्बारे सपनों के और उम्मीदों के…

सर्दियाँ

सुबह से चढ़ रहा मुण्डेर गुनगुना सूरज
शहर में कँपकपाटी सर्दियों का फेरा है

देखता हूँ वो कच्ची धूप में लिपा आँगन
माँ ने नहलाके खड़ा कर दिया है फर्शी पे

कान के पीछे लगाया है फ़िक्र का टीका
और पहना दिया है पीला पुलोवर जिसमें
बुनी है कितनी जागती रातें

शहर में कँपकपाटी सर्दियों का फेरा है,
सुबह से ढूँढ रहा हूँ वो गुनगुना सूरज।

यह भी पढ़ें: ‘दोपहरों में विविध भारती मिस करता है शहर तुम्हारा’

Book by Sudhir Sharma:

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