‘Prempatra’, a poem by Kavita Nagar

बाँचती हूंँ रोज़ ही
तुम्हारी आँखों में लिखे
अनकहे, अनसुने
प्रेमपत्र
जो कह नहीं पाते
तुम फ़ुरसत के अभाव में।

रोज़ ही डालती हूंँ मैं भी,
थोड़ा-थोड़ा प्यार
इलायची वाली चाय,
नरम-नरम फुलकों में,
तीखे-तीखे लम्हों का
लगा देती हूंँ छौंक,
और इस्त्री करते हुए
मिटाती रहती हूँ,
मन की सलवटें भी

ये तुम्हारी फ़िक्र और
उलाहने मुझको,
तवज्जो बतलाते हैं मेरी
चाहते हो कि ख़ुद की
अवहेलना ना करूँ मैं,
तभी करते रहते हो
शिकवें, शिकायतें
जिनके केंद्र में होती हूँ मैं।

घर देर से आने पर
मोबाइल पर चलती है
फ़िक्र की उँगलियाँ।
घड़ी और दरवाज़े भी,
फिर हाल पूछने लगते हैं

सम्वाद दिल से दिल का होता है
ये मौन बड़ा बातूनी होता है
कभी ख़त्म नहीं होती
इसकी बातें

दरवाज़े की डोरबेल बड़ी
जादुई-सी लगती है
जब तुम इसे बजाते हो
कभी बहुत देर होने
पर जब तुम घर लौट आते हो।

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कविता नागर
नवोदित रचनाकार देवास(म.प्र.) कविता एवं कहानी लेखन में रुचि। सुरभि प्रभातखबर, सुबह सबेरे,नयी दुनिया और अन्य पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।

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