‘Privacy’, a laprek by Abhishek Ramashankar

“आजकल सपने कुछ ज़्यादा ही देखने लगे हो तुम।”

“क्यों? नहीं देखना चाहिए?”

“नहीं, मैंने ऐसा कब कहा? देखो, ख़ूब देखो।”

“मिलने की भी तो कोई जगह होनी चाहिए, ना। जहाँ हम सुकून से दो पल मोहब्ब्त में साथ गुज़ार सकें। पता नहीं कब हमें कोई भीड़ अलग कर दे और हम अख़बारों की सुर्ख़ियों में हो। अब तो बसों में भी तुम्हारा हाथ पकड़ते डर लगता है।”

“तुम बहुत डरते हो।”

“नहीं, परवाह करता हूँ… सपनों की अपनी एक अलग ही प्राइवेसी होती है। वहाँ हमें कोई गले लगते और चूमते रोक नहीं सकता।”

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