माथे की आँच से
डोरा सुलगता है
मोम नहीं गलता
देह बन्द नदिया
उफनाती है
नीली फिर काली फिर श्वेत हो जाती है
दार्शनिक उँगलियों से
चितकबरे फूल नहीं
झरती है राख
असहाय होता हूँ
जब-जब रिक्त होता हूँ
प्यार करता हूँ
वहीं एक सीढ़ी है नीचे उतरकर
दुनिया कहलाने की।
सागर के नीचे दरार है
किरन कतराती है
पत्थर सरकाकर
राह निकल जाती है
हवा की चोट से
बाँस झुलस जाता है
हरा-भरा अंधकार होता हूँ
प्यार करता हूँ
वही एक शर्त है
ज़िन्दा रह जाने की।

कैलाश वाजपेयी की कविता 'मुझे नींद नहीं आती'

Book by Kailash Vajpeyi:

Previous articleकुटिया में कौन आएगा इस तीरगी के साथ
Next articleमेरे पुरखों की पहली दुआ
कैलाश वाजपेयी
कैलाश वाजपेयी (11 नवंबर 1936 - 01 अप्रैल, 2015) हिन्दी साहित्यकार थे। उनका जन्म हमीरपुर उत्तर-प्रदेश में हुआ। उनके कविता संग्रह ‘हवा में हस्ताक्षर’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया था।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here