मेरे लिए देशप्रेम और मानव-प्रेम में कोई भेद नहीं है; दोनों एक ही हैं। मैं देशप्रेमी हूँ, क्योंकि मैं मानव-प्रेमी हूँ। मेरा देशप्रेम वर्जनशील नहीं हैं। मैं भारत के हित की सेवा के लिए इंग्लैंड या जर्मनी का नुक़सान नहीं करूँगा। जीवन की मेरी योजना में साम्राज्यवाद के लिए कोई स्थान नहीं है। देशप्रेम की जीवन-नीति किसी कुल या क़बीले के अधिपति की जीवन-नीति से भिन्न नहीं है।
और यदि कोई देशप्रेमी उतना ही उग्र मानव-प्रेमी नहीं है, तो कहना चाहिए कि उसके देशप्रेम में उतनी न्यूनता है।
वैयक्तिक आचरण और राजनीतिक आचरण में कोई विरोध नहीं है; सदाचार का नियम दोनों को लागू होता है।
जिस तरह देशप्रेम का धर्म हमें आज यह सिखाता है कि व्यक्ति को परिवार के लिए, परिवार को ग्राम के लिए, ग्राम को जनपद के लिए और जनपद को प्रदेश के लिए मरना सीखना चाहिए, उसी तरह किसी देश को स्वतंत्र इसलिए होना चाहिए कि वह आवश्यकता होने पर संसार के कल्याण के लिए अपना बलिदान दे सके। इसलिए राष्ट्रवाद की मेरी कल्पना यह है कि मेरा देश इसलिए स्वाधीन हो कि प्रयोजन उपस्थित होने पर सारा ही देश मानव-जाति की प्राणरक्षा के लिए स्वेच्छापूर्वक मृत्यु का आलिंगन करे। उसमें जातिद्वेष के लिए कोई स्थान नहीं है। मेरी कामना है कि हमारा राष्ट्रप्रेम ऐसा ही हो।
मैं भारत का उत्थान इसलिए चाहता हूँ कि सारी दुनिया उससे लाभ उठा सके। मैं यह नहीं चाहता कि भारत का उत्थान दूसरे देशों के नाश की नींव पर हो।
यूरोप के पाँवों में पड़ा हुआ अवनत भारत मानव-जाति को कोई आशा नहीं दे सकता। किंतु जाग्रत और स्वतंत्र भारत दर्द से कराहती हुई दुनिया को शांति और सद्भाव का संदेश अवश्य देगा।
राष्ट्रवादी हुए बिना कोई अंतर-राष्ट्रीयतावादी नहीं हो सकता। अंतर-राष्ट्रीयतावाद तभी सम्भव है जब राष्ट्रवाद सिद्ध हो चुके—यानी जब विभिन्न देशों के निवासी अपना संघटन कर लें और हिल-मिलकर एकतापूर्वक काम करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लें। राष्ट्रवाद में कोई बुराई नहीं है; बुराई तो उस संकुचितता, स्वार्थवृत्ति और बहिष्कार-वृत्ति में है, जो मौजूदा राष्ट्रों के मानस में ज़हर की तरह मिली हुई है। हर एक राष्ट्र दूसरे की हानि करके अपना लाभ करना चाहता है और उसके नाश पर अपना निर्माण करना चाहता है। भारतीय राष्ट्रवाद ने एक नया रास्ता लिया है। वह अपना संघटन या अपने लिए आत्म-प्रकाशन का पूरा अवकाश विशाल मानव-जाति के लाभ के लिए, उसकी सेवा के लिए ही चाहता है।
भगवान ने मुझे भारत में जन्म दिया और इस तरह मेरा भाग्य इस देश की प्रजा के भाग्य के साथ बाँध दिया है, इसलिए यदि मैं उसकी सेवा न करूँ तो मैं अपने विधाता के सामने अपराधी ठहरूँगा। यदि मैं यह नहीं जानता कि उसकी सेवा कैसे की जाए, तो मैं मानव-जाति की सेवा करना सीख ही नहीं सकता और यदि अपने देश की सेवा करते हुए मैं दूसरे देशों को काई नुक़सान नहीं पहुँचाता, तो मेरे पथर्भष्ट होने की कोई सम्भावना नहीं है।
मेरा देशप्रेम कोई बहिष्कारशील वस्तु नहीं बल्कि अतिशय व्यापक वस्तु है और मैं उस देशप्रेम को वर्ज्य मानता हूँ जो दूसरे राष्ट्रों को तकलीफ़ देकर या उनका शोषण करके अपने देश को उठाना चाहता है।
देशप्रेम की मेरी कल्पना यह है कि वह हमेशा, बिना किसी अपवाद के हर एक स्थिति में, मानव-जाति के विशालतम हित के साथ सुसंगत होना चाहिए। यदि ऐसा न हो तो देशप्रेम की कोई क़ीमत नहीं। इतना ही नहीं, मेरे धर्म और उस धर्म से ही प्रसूत मेरे देशप्रेम के दायरे में प्राणि मात्र का समावेश होता है। मैं न केवल मनुष्य नाम से पहचाने जाने वाले प्राणियों के साथ भ्रातृत्व और एकात्मता सिद्ध करना चाहता हूँ, बल्कि समस्त प्राणियों के साथ—रेंगने वाले साँप आदि जैसे प्राणियों साथ भी—उसी एकात्मता का अनुभव करना चाहता हूँ। कारण, हम सब उसी एक सृष्टा की संतति होने का दावा करते हैं और इसलिए सब प्राणी, उनका रूप कुछ भी हो, मूल में एक ही हैं।
हमारा राष्ट्रवाद दूसरे देशों के लिए संकट का कारण नहीं हो सकता क्योंकि जिस तरह हम किसी को अपना शोषण नहीं करने देंगे, उसी तरह हम भी किसी का शोषण नहीं करेंगे। स्वराज्य के द्वारा हम सारी मानव-जाति की सेवा करेंगे।
सार्वजनिक जीवन के लगभग 50 वर्ष के अनुभव के बाद आज मैं यह कह सकता हूँ कि अपने देश की सेवा दुनिया की सेवा से असंगत नहीं है—इस सिद्धांत में मेरा विश्वास बढ़ा ही है। यह एक उत्तम सिद्धांत है। इस सिद्धांत को स्वीकार करके ही दुनिया की मौजूदा कठिनाइयाँ आसान की जा सकती हैं और विभिन्न राष्ट्रों में जो पारस्परिक द्वेषभाव नज़र आता है, उसे रोका जा सकता है।
महात्मा गाँधी का लेख 'मेरे सपनों का भारत'