यूसुफ़ भी तुम्हें छुपाता है ज़ुलैख़ा
गढ़ता है नये मुहावरे
तुलसी की बैंगनी मंजरी से
छितवन के महकदार फूलों तक
अब वो चाँद देखता ही नहीं
जब वो देर तक पकाता है चाय, अलसुबह
बुला रहा होता है तुम्हें
जब वो फूँकता है चाय की भाप
या, राह चलते लेता है तस्वीर
या, डुबाता है उँगलियाँ झील में
या, चुनता है जंगल की खामोशी
या, सीने पे रखता है चिपकाकर किताब

या, वो कहता है…
देखो मद्धिम है आज धूप
या, कितना प्यारा है ये बच्चा
या, कल खिल जायेगी ये कली
या, आज मशरूम पकाएंगे खाने में
या, फिरनी में गुलाबजल नहीं है
या, काली चिड़िया नहीं आयी आज
या, ख़त्म होने को है दवा
जो भी था पुरसुकून, तुम्हारे नाम सा था
जिसके नाम में तुम नहीं, वो वबाल सा है
अँधेरे में दिया है वो, दर्द में आराम
हर गाँठ खोलनी आती है
ऐसे शामिल है वो उसमें
कि उसके नाम से करता है दस्तख़त वो
उसने साँसों से बनायी है तस्बीह
जिस पर उसके नाम के मोती हैं,
अब यही इबादत है!!

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