जिन दिनों मेरा विवाह हुआ, उन दिनो निबंधों की छोटी-छोटी पुस्तिकाएँ—पैसे-पैसे या पाई-पाई की, सो तो कुछ याद नहीं—निकलती थीं। उनमें दम्पति-प्रेम, कमख़र्ची, बालविवाह आदि विषयों की चर्चा रहती थी। उनमें से कुछ निबंध मेरे हाथ में पड़ते और मैं उन्हें पढ़ जाता। मेरी यह आदत तो थी कि पढ़े हुए में से जो पसंद न आए, उसे भूल जाना और जो पसंद आए, उस पर अमल करना। मैंने पढ़ा था कि एकपत्नी-व्रत पालना पति का धर्म है। बात हृदय में रम गई। सत्य का शौक़ तो था ही इसलिए पत्नी को धोखा तो दे ही नहीं सकता था। इसी से यह भी समझ में आया कि दूसरी स्त्री के साथ सम्बन्ध नहीं रहना चाहिए। छोटी उमर में एकपत्नी-व्रत के भंग की सम्भावना कम ही रहती है।
पर इन सद्विचारों का एक बुरा परिणाम निकला। अगर मुझे एक-पत्नी-व्रत पालना है, तो पत्नी को एक-पति-व्रत पालना चाहिए। इस विचार के कारण मैं ईर्ष्यालु पति बन गया। ‘पालना चाहिए’ में से मैं ‘पलवाना चाहिए’ के विचार पर पहुँचा। और अगर पलवाना है तो मुझे पत्नी की निगरानी रखनी चाहिए। मेरे लिए पत्नी की पवित्रता में शंका करने का कोई कारण नहीं था। पर ईर्ष्या कारण क्यों देखने लगी? मुझे हमेशा यह जानना ही चाहिए कि मेरी स्त्री कहाँ जाती है। इसलिए मेरी अनुमति के बिना वह कहीं जा ही नहीं सकती। यह चीज़ हमारे बीच दुखद झगड़े की जड़ बन गई। बिना अनुमति के कहीं भी न जा सकना तो एक तरह की क़ैद ही हुई। पर कस्तूरबाई ऐसी क़ैद सहन करने वाली थी ही नहीं। जहाँ इच्छा होती, वहाँ मुझसे बिना पूछे ज़रूर जाती। मैं ज्यों-ज्यों दबाव डालता, त्यों-त्यों वह अधिक स्वतंत्रता से काम लेती, और मैं अधिक चिढ़ता। इससे हम बालकों के बीच बोलचाल का बंद होना एक मामूली चीज़ बन गई।
कस्तूरबाई ने जो स्वतंत्रता बरती, उसे मैं निर्दोष मानता हूँ। जिस बालिका के मन में पाप नहीं है, वह देव-दर्शन के लिए जाने पर या किसी से मिलने जाने पर दबाव क्यों सहन करे? अगर मैं उस पर दबाव डालता हूँ, तो वह मुझ पर क्यों न डाले? — यह तो अब मुझे समझ में आ रहा है। उस समय तो मुझे अपना पतित्व सिद्ध करना था।
लेकिन पाठक यह न मानें कि हमारे गृहजीवन में कहीं भी मिठास नहीं थी। मेरी वक्रता की जड़ प्रेम में थी। मैं अपनी पत्नी को आदर्श पत्नी बनाना चाहता था। मेरी यह भावना थी कि वह स्वच्छ बने, स्वच्छ रहे, मैं सीखूँ सो सीखे, मैं पढ़ूँ सो पढ़े और हम दोनों एक दूसरे में ओत-प्रोत रहें।
कस्तूरबाई में यह भावना थी या नहीं, इसका मुझे पता नहीं। वह निरक्षर थी। स्वभाव से सीधी, स्वतंत्र, मेहनती और मेरे साथ तो कम बोलने वाली थी। उसे अपने अज्ञान का असंतोष न था। अपने बचपन में मैंने कभी उसकी यह इच्छा नहीं जानी कि मेरी तरह वह भी पढ़ सके तो अच्छा हो। इसमें मैं मानता हूँ कि मेरी भावना एकपक्षी थी।
मेरा विषय-सुख एक स्त्री पर ही निर्भर था और मैं उस सुख का प्रतिघोष चाहता था। जहाँ प्रेम एक पक्ष की ओर से होता है वहाँ सर्वांश में दुःख तो नहीं ही होता। मैं अपनी स्त्री के प्रति विषायाक्त था। शाला में भी उसके विचार आते रहते। कब रात पड़े और कब हम मिलें, यह विचार बना ही रहता। वियोग असह्य था। अपनी कुछ निकम्मी बकवासों से मैं कस्तूरबाई को जगाए ही रहता। मेरा ख़याल है कि इस आसक्ति के साथ ही मुझमें कर्तव्य-परायणता न होती, तो मैं व्याधिग्रस्त होकर मौत के मुँह में चला जाता, अथवा इस संसार में बोझरूप बनकर ज़िंदा रहता। ‘सवेरा होते ही नित्यकर्म में तो लग जाना चाहिए, किसी को धोखा तो दिया ही नहीं जा सकता’ …अपने इन विचारों के कारण मैं बहुत से संकटों से बचा हूँ।
मैं लिख चुका हूँ कि कस्तूरबाई निरक्षर थी। उसे पढ़ाने की मेरी बड़ी इच्छा थी। पर मेरी विषय-वासना मुझे पढ़ाने कैसे देती? एक तो मुझे ज़बरदस्ती पढ़ाना था। वह भी रात के एकांत में ही हो सकता था। बड़ों के सामने तो स्त्री की तरफ़ देखा भी नहीं जा सकता था। फिर बात-चीत कैसे होती? उन दिनों काठियावाड़ में घूँघट निकालने का निकम्मा और जंगली रिवाज था; आज भी बड़ी हद तक मौजूद है। इस कारण मेरे लिए पढ़ाने की परिस्थितियाँ भी प्रतिकूल थीं। अतएव मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि जवानी में पढ़ाने के जितने प्रयत्न मैंने किए, वे सब लगभग निष्फल हुए।
जब मैं विषय की नींद से जागा, तब तो सार्वजनिक जीवन में कूद चुका था। इसलिए अधिक समय देने की मेरी स्थिति नहीं रही थी। शिक्षकों के द्वारा पढ़ाने के मेरे प्रयत्न भी व्यर्थ सिद्ध हुए। यही कारण है कि आज कस्तूरबाई की स्थिति मुश्किल से पत्र लिख सकने और साधारण गुजराती समझ सकने की है। मैं मानता हूँ कि अगर मेरा प्रेम विषय से दूषित न होता तो आज वह विदुषी स्त्री होती। मैं उसके पढ़ने के आलस्य को जीत सकता था, क्योंकि मैं जानता हूँ कि शुद्ध प्रेम के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है।
यों पत्नी के प्रति विषायासक्त होते हुए भी मैं किसी क़दर कैसे बच सका, इसका एक कारण बता चुका हूँ। एक और भी बताने लायक़ है। सैकड़ों अनुभवों के सहारे मैं इस परिणाम पर पहुँच सका हूँ कि जिसकी निष्ठा सच्ची है, उसकी रक्षा स्वयं भगवान ही कर लेते हैं। हिंदू-समाज में यदि बाल विवाह का घातक रिवाज है, तो साथ ही उससे मुक्ति दिलाने वाला रिवाज भी है। माता-पिता बालक वर-वधू को लम्बे समय तक एक साथ नहीं रहने देते। बाल-पत्नी का आधे से अधिक समय पीहर में बीतता है। यही बात हमारे सम्बन्ध में भी हुई, मतलब यह कि तेरह से उन्नीस साल की उमर तक छुटपुट मिलाकर कुल तीन साल से अधिक समय तक साथ नहीं रहे होंगे। छह-आठ महीने साथ रहते, इतने में माँ-बाप के घर का बुलावा आ ही जाता। उस समय तो वह बुलावा बहुत बुरा लगता था, पर उसी के कारण हम दोनों बच गए।
फिर तो अठारह साल की उमर में विलायत गया, जिससे लम्बे समय का सुंदर वियोग रहा। विलायत से लौटने पर भी हम क़रीब छह महीने साथ में रहे होंगे, क्योंकि मैं राजकोट और बम्बई के बीच जाता-आता रहता था। इतने में दक्षिण अफ्रीका का बुलावा आ गया। इस बीच तो मैं अच्छी तरह जाग्रत हो चुका था।