यह शब्द ब्रह्म, मैं शब्द साधना करता हूँ।

मेरे तरकश में शब्दरूपी हैं बाण भरे
मेरी जिह्वा में ध्वनियों के हैं प्राण पड़े
मैं उर के सागर मेघ बना
संगीत गर्जना करता हूँ।

मेरा अस्तित्व क्षणों का सीमित गुंजन है
यह गीत मेरा ईश्वर का नित अभिनंदन है
सृष्टि में फैले सन्नाटे का वंदन है
मैं शब्दों से सृष्टि की चुप्पी भरता हूँ।

यह मानस, नदियाँ, तरुवर, भूधर
प्रेम, ममत्व और रजनीचर
हैं मौन खड़े,
इस बात का खंडन करता हूँ

मैं शमशानों की भस्म नहीं
मैं मौत की अंतिम रस्म नहीं
मैं ओंकार के नाद की
अटल अमरता हूँ

यह शब्द ब्रह्म, मैं शब्द साधना करता हूँ।

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पुष्पेन्द्र पाठक
दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी। Email- [email protected] Mobile- 9971282446

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