‘Shanti’, a poem by Husain Ravi Gandhi

मनुष्य बनना यद्यपि अभिशाप है
मैं मनुष्य बनूँगा।
शान्ति का प्रत्युत्तर यदि आग्नेयास्त्र है, तो
मैं शान्ति का श्वेत कबूतर बनूँगा।

फूलों की खुशबू कभी-कभी
हालाँकि कइयों को यन्त्रणा देती है
फिर भी मैं फूल बनकर खिलूँगा
किसी अनजान उपत्यका के
अनचीन्हे पेड़ पर।

इन्द्रधनुष यद्यपि बाढ़ विपत्ति में
बारिश का हस्ताक्षर है,
तो भी मैं इन्द्रधनुष के
सातों रंग लगाकर चकमक दिखूँगा
धुँधले आकाश के सीने में।

क्योंकि मुझे देखकर
अनागत
भोली मुस्कान से
मेरा स्वागत करेगा।
और परित्राण का चिरन्तन पथ
यह हरित धरती
सुन्दर दिखेगी
कृष्ण-स्वर्ण रंग का
ज्वलन्त धूम कुण्डली नहीं है
हरित वर्ण अर्धेन्द्र बनकर बरसाएगा
चाँदी-सी चाँदनी।
प्रतीक्षा कर रही है
नूतनता के चिरन्तन यौवन के प्रवाह का।

बार-बार खो जाता है
ढूँढे जाने के लिए और
ढूँढने से मिल जाने पर भयंकर दिखता है
जैसे, कुण्डली मारकर फुफकारता सर्प।
फिर भी, उस नागराज के मस्तक पर
अन्धकार भेदने के लिए मणि शोभा पाती है।

मुझे वही चमकीली
मणि चाहिए
शान्ति की मणि चाहिए
मैं शान्ति! तू शान्ति! वह शान्ति!
सभी तो शान्ति हैं।
ओम् शान्ति।

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