‘Starbucks Cafe’, a poem by Rag Ranjan

दोनों ने दो लम्बे ग्लास आर्डर किए हैं
एक ही फ़्लेवर की कॉफ़ी के
मानो दोनों के बीच
कॉफ़ी का फ़्लेवर बेमानी हो

दोनों बातें करते हैं
और साथ मुस्कुराते हैं किसी-किसी बात पर
वह रह-रहकर सीधे उसकी आँखों में देखता है
उसकी उँगलियाँ गले में पड़ा मंगलसूत्र टटोलती हैं

बग़ल की टेबल पर दो प्रेमी
इस बात पर बहस कर रहे हैं
कि पिछली बार कब मिले थे
दूसरी तरफ़ दो लड़कियाँ साथ बैठीं
अपने-अपने मोबाइल में चुप क़ैद हैं

एक कतार में कुछ लोग
अकेले-अकेले बैठे हैं
सबके सामने की कुर्सियाँ ख़ाली हैं
ये कलाकार, कवि, ब्लॉगर, चित्रकार हो सकते हैं
या फिर अवसाद, इंतज़ार, मायूसी या उदासीनता के शिकार

या इनमें से कुछ, या सब कुछ
या कुछ नहीं होने की कोशिश में कुछ अकेले लोग

कैफ़े के एक कोने से हँसने की आवाज़ आती है

स्त्री की नज़रें हँसी की दिशा में घूमती हैं
वह फिर अपना मंगलसूत्र टटोलती है
पुरुष उसकी आँखों में देखता जाता है एकटक

लम्बे ग्लासों में रखी कॉफ़ी
कि जिसका फ़्लेवर बेमानी है
ठण्डी होती जाती है।

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