ट्रेन विक्रोली स्टेशन पहुँचने ही वाली थी कि उसके ठीक कुछ सौ मीटर पहले ही रुक गयी। ट्रेन के रुकते ही पसीने की कतारें शुरू हो गयीं। साथ ही गर्मी और पसीने से झल्लाए लोगों के मुँह से रुकी हुई ट्रेन के लिए गालियाँ। गालियाँ अब नहीं देता। पसीना तो कभी सहा ही नहीं गया। इसीलिए दरवाज़े या उसके बिल्कुल पास खड़ा हो जाता हूँ। अक्सर सोचता हूँ कि दरवाज़े पर खड़े होकर हवा खाने में ऐसा क्या मज़ा है कि लोग जान को दरवाज़े पर टाँगे घण्टों सफ़र करते हैं। सिर्फ़ इतना ही नहीं, बल्कि आपको हर स्टेशन पर लड़-झगड़कर दरवाज़े पर अपनी जगह बनाए रखनी पड़ती है।

वैसे इसका जवाब तो मैं भी दे सकता हूँ लेकिन दे नहीं पाता। शायद दरवाज़े की हवा का जो खिंचाव है, जिसे फ़िलॉसोफ़र्स अपनी भाषा में ‘एस्केप’ कहते हैं, कहा जा सकता है।

ख़ैर, ट्रेन चल पड़ी और हवा के झोकें एक बार फिर एस्केप ज़ोन में ले जा ही रहे थे कि स्टेशन आ गया और ट्रेन रुक गयी। ट्रेन के लिए कुछ सौ मीटर का फ़ासला होता ही कितना है! ट्रेन के रुकने से पहले ही लोग उतरकर जिस तेज़ी से अपनी-अपनी मंज़िल की ओर भागते हैं कि मानो धीमे चलने से जान ही चली जाए। कोई शेयर ऑटो की लाइन के लिए, तो कोई बस की लाइन के लिए तो कोई किसी लाइन के लिए। इस शहर में लाइनें ही लाइनें हैं। हालाँकि न चाहते हुए भी मुझे भी किसी न किसी लाइन का हिस्सा बनना पड़ता है।

दोपहर का वक़्त था, इसीलिए चलती ट्रेन से उतरते ही दौड़ा नहीं। दौड़ा पीक आवर्स में जाता है। यहाँ इतनी भाग-दौड़ है कि फ़ुर्सत होने पर भी, ट्रेनें और बसें ख़ाली होने पर भी, लोग इतनी भगदड़ मचाते हैं कि भागना शायद अब लोगों के सिस्टम में आ गया है। कुछ भी हो, कहीं भी, वक़्त-बेवक़्त भागते रहो। अरे भाई, ट्रेन ख़ाली है, फ़ुर्सत से चढ़ो और फ़ुर्सत से उतरने दो! लेकिन नहीं, ख़ाली ट्रेन की एक अलग जंग है। ख़ाली ट्रैन में जंग सीट पाने की रहती है। भीड़ में तो महज़ खड़े रहने की जगह मिल जाए, काफ़ी है। अजीब पागलपन है यहाँ।

कुछ दूरी पर फ़ुर्सत से चलता एक बूढ़ा आदमी दिख गया। समझने में देरी नहीं लगी कि आदमी अंधा है। एक अंधे के पास फ़ुर्सत से चलने के अलावा दूसरा विकल्प ही क्या है? चूँकि मैं ख़ुद फ़ुर्सत में था, सोचा उसे रास्ता पार करा दूँ। पर एक पल को सोचा, नहीं, बूढ़ा उस पर से अंधा, इतने धीमे चलेगा, कि फ़ुर्सत ख़ुद तेज़ चलने को कह देगी। लेकिन आत्मा ने दुत्कारा, ऐसे तो कॉलेज में चाय टपरी पर घण्टों फ़िज़ूल ख़र्च हो जाते हैं, एक भला काम करने में इतनी असकत। छै!

बूढ़े के पास पहुँचते ही, उससे पूछे बिना, उसका हाथ पकड़कर कहा, “आओ तुम्हें छोड़ देता हूँ।”

शुरू में भले काम के नाम पर कोई दिक्कत नहीं महसूस हुई, लेकिन कुछ वक़्त बीतने के बाद चिड़चिड़ापन होने लगा। बूढ़ा अगर इतने धीमे चलेगा तो न वो कभी घर पहुँच पाएगा और न मैं। वक़्त काटने के लिए मैंने बूढ़े से बातचीत शुरू की।

“बाबा, घर कहाँ है?”

“यहीं, पास में है। टैगोर नगर!”

“अच्छा। घर कौन-कौन रहता है?”

“बेटा, बहू और उसका भाई।”

कुछ देर चुप रहने के बाद बूढ़ा फिर बोला।

“अच्छे लोग नही हैं! मुझे बहुत तंग करते हैं। बहू और उसका भाई तो पराए हैं ही। अपना बेटा भी उनकी तरह हो चला है।”

इतना कहने-सुनने के बाद हमारे बीच सन्नाटा छा गया। उसका दर्द सुनने पर समझ नहीं आया क्या कहूँ। मैं नहीं जानता था कि बूढ़ा सीधे अपना दुःख बाँटेगा, और उस पर से उसकी थरथरारती आवाज़! मैंने हवा निगली और बात कहीं और मोड़ने की कोशिश की। जब उसके लिए कुछ कर नहीं सकता, तो क्यों फ़िज़ूल में उसके दुःख में शरीक होऊँ।

“बाबा, काम क्या करते हो?”

“गाने-बजाने का काम करता हूँ बेटा।”

“अच्छा।”

“दिन का सौ-पचास कमा लेता हूँ।”

इस बार भी कुछ देर ख़ामोश रहा, और फिर बोला।

“पर इतने में क्या होता है। इसी कमाई में घर भी कुछ देना पड़ता है। कुछ नहीं दो तो बहू ताने सुनाने लगती है। जब कभी पैसे नहीं बचा पाता, तो डाँट सुनने के डर से सारा दिन यहाँ-वहाँ भटकने लगता हूँ।”

बूढ़ा फिर शुरू हो गया! मुझे अब ग़ुस्सा आ रहा था। इस बात पर नहीं कि वो दुःख के राग अलाप रहा था, बल्कि इस बात पर कि मैं अपने आपको उसके दर्द को लेकर बिल्कुल असहाय महसूस कर रहा था। और फिर उसकी आवाज़ में शायद मदद की गुहार भी थी। मदद जो मैं कर नहीं सकता था, या मदद करने का ज़िम्मा ले नहीं सकता था। समझ नहीं आ रहा था क्या करूँ! बीच रास्ते भी छोड़कर नहीं जा सकता था और बीच में यूँ बात काटना भी अजीब लगता। इसी बूढ़े की तरह सैकड़ों बूढ़े-बुढ़ियाँ हैं जो रोज़ स्टेशनों और बस स्टॉपों पर दिख जाते हैं। सभी के शायद वही दुःख-दर्द, शायद वही अतीत और वही भविष्य! साला रोज़मर्रा का दुःख भी अब दुःख की तरह नहीं लगता।

अब हम ब्रिज के उस पार पहुँच चुके थे। इस दौरान हम दोनों ही चुप रहे। जितना ही मैं बूढ़े के चुप रहने पर चैन की साँस ले रहा था, उतनी ही बेचैनी से उसके बारे में और जानने को जी मचल रहा था। वैसे जानकर कुछ कर तो नहीं पाता, मगर न जानने पर मन बहुत देर तक अस्थिर रहता। अब कुछ क़दमों पर जो बस स्टॉप था, बूढ़े को उस पर छोड़ने को मैं इतना उत्सुक था कि आख़िरी कुछ क़दम अपने आप ही बिना मचले धीमे हो पड़े।

आख़िर बस स्टॉप पहुँच ही गए। सलाम-दुआ कर ही रहा था कि बूढ़े ने सकुचाते हुए एक ओर इशारा किया और तीन रुपए की माँग की। बूढ़ा पैसों की माँग करने के बाद फिर ख़ामोश हो गया। लगा जैसे कुछ और बोलेगा। लेकिन नहीं। शायद मैं ही चाहता था कि वो कुछ बोले। उसकी ख़ामोशी दो बार पहले ही चुभ चुकी थी।

मुड़कर देखा तो उस दिशा में नीम्बू पानी वाला था। पैसों की माँग करने के बाद बूढ़ा मेरी ओर शक्ल कर खड़े रहा। मैं उसे कुछ देर देखता रहा। ऐसा लगा कि बूढ़ा भी मुझे देख रहा है। सोचो, कैसा लगता, लाठी का सहारा लिए एक बेबस बूढ़ा, आपसे पैसों की माँग करने के बाद, अपना संयम बनाए हुए, आप पर आँखें गड़ाए, बिना कोई इमोशंस दिखाए, आपको एक टक ताक रहा हो! शायद पैसों के इंतज़ार में नहीं, बस इंतज़ार में… वो इंतज़ार जिसका कोई अंजाम नहीं। वो बस इंतज़ार है जो ज़िन्दगी के ख़ालीपन से उभरता है।

बूढ़े की पैसों की माँग ने मुझे अचम्भित कर दिया। मैंने सोचा था कि उसे बस स्टॉप पर छोड़ अपनी राह चल दूँगा। लेकिन अब ऐसा करना मुमकिन नहीं था। ऐसी बात नहीं कि पैसे नहीं थे मेरे पास। थे मेरे पास दस रुपए, छः शेयर ऑटो के और चार शाम की चाय के। अगर बूढ़े को तीन दे दूँ, तो शाम की चाय की दिक्कत हो जाएगी। कुछ देर यूँ ही खड़ा रहा… फिर कुछ बोलने की कोशिश की, लेकिन महज़ ‘बाबा’ ही गले से निकला। बूढ़ा मेरे आगे के शब्दों के इंतज़ार में रुका हुआ लगा।

मैं बिना कुछ कहे, दबे पॉंव, अपने को धुत्कारता हुआ चल दिया। पीछे मुड़ने पर लगा जैसे बूढ़ा अपनी अंधी आँखों से मुझे देख रहा है।

(फरवरी, 2018, बम्बई)
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