‘Taai’ – Hindi Kahani by Vishwambharnath Sharma Kaushik
“ताऊजी, हमें लेलगाड़ी (रेलगाड़ी) ला दोगे?” — कहता हुआ एक पंचवर्षीय बालक बाबू रामजीदास की ओर दौड़ा।
बाबू साहब ने दोनों बाहें फैलाकर कहा — “हां बेटा, ला देंगे।”
उनके इतना कहते-कहते बालक उनके निकट आ गया। उन्होंने बालक को गोद में उठा लिया और उसका मुख चूमकर बोले — “क्या करेगा रेलगाड़ी का?”
बालक बोला — “उसमें बैठ के बली दूल जायेंगे। हम भी जायेंगे। चुन्नी को भी ले जायेंगे। बाबूजी को नहीं ले जायेंगे। हमें लेलगाड़ी नहीं ला देते। ताऊजी, तुम ला दोगे, तो तुम्हें ले जायेंगे।”
बाबू — “और किसको ले जायेगा।”
बालक दम-भर सोचकर बोला — “बछ, औल किछी को नहीं ले जायेंगे।”
पास ही बाबू रामजीदास की अर्द्धांगिनी बैठी थीं। बाबू साहब ने उसकी ओर इशारा करके कहा — “और अपनी ताई को नहीं ले जायेगा।”
बालक कुछ देर तक अपनी ताई की ओर देखता रहा। ताईजी उस समय कुछ चिढ़ी हुई-सी बैठी थीं। बालक को उसके मुख का वह भाव अच्छा न लगा। अतएव वह बोला — “ताई को नहीं ले जायेंगे।”
ताईजी सुपारी काटती हुई बोलीं — “अपने ताऊजी को ही ले जा। मेरे पर दया रख।”
ताई ने यह बात बड़ी रुखाई के साथ कही। बालक ताई के शुष्क व्यवहार को तुरन्त ताड़ गया। बाबू साहब ने फिर पूछा — “ताई को नहीं ले जायेगा?”
बालक — “ताई हमें प्याल (प्यार) नहीं करती।”
बाबू — “जो प्यार करे, तो ले जायेगा।”
बालक को इसमें कुछ सन्देह था। ताई का भाव देखकर उसे यह आशा नहीं थी कि यह प्यार करेंगी। इससे बालक मौन रहा। बाबू साहब ने फिर पूछा — “क्यों रे, बोलता क्यों नहीं? ताई प्यार करें, तो रेल पर बिठाकर ले जायेगा?”
बालक ने ताऊजी को प्रसन्न करने के लिए केवल सिर हिलाकर स्वीकार कर लिया, परन्तु मुख से कुछ नहीं कहा। बाबू साहब उसे अपनी अर्द्धांगिनी के पास ले जाकर उनसे बोले — “लो, इसे प्यार कर लो, तो यह तुम्हें भी ले जायेगा।”
परन्तु बच्चे की ताई श्रीमती रामेश्वरी को पति की यह चुहलबाज़ी अच्छी न लगी। वह तुनककर बोली — “तुम्हीं रेल पर बैठकर जाओ, मुझे नहीं जाना है।”
बाबू साहब ने रामेश्वरी की बात पर ध्यान नहीं दिया। उधर ताई ने मनोहर को अपनी गोद से ढकेल दिया। मनोहर नीचे गिर गया। शरीर में चोट तो नहीं लगी, पर हृदय में चोट लगी। बालक रो पड़ा। बाबू साहब ने बालक को गोद में उठा लिया, चूमकर-पुचकार कर चुप किया और तत्पश्चात् उसे कुछ पैसे तथा रेलगाड़ी ला देने का वचन देकर छोड़ दिया। बालक मनोहर भयपूर्ण दृष्टि से अपनी ताई की ओर ताकता हुआ उस स्थान से चला गया। मनोहर के चले जाने पर बाबू रामजीदास रामेश्वरी से बोले — “तुम्हारा यह कैसा व्यवहार है? बच्चे को ढकेल दिया। जो उसके चोट लग जाती?”
रामेश्वरी मुंह मटकाकर बोली — “लग जाती, तो अच्छा होता। क्यों मेरी खोपड़ी पर लादे देते थे? आप ही तो उसे मेरे ऊपर डालते थे, और आप ही अब ऐसी बातें करते हैं।”
बाबू साहब कुढ़कर बोले — “इस को खोपड़ी पर लादना कहते हैं?”
रामेश्वरी — “और नहीं किसे कहते हैं? तुम्हें तो अपने आगे और किसी का दु:ख-सुख सूझता ही नहीं। न जाने कब किसका जी कैसा होता है? तुम्हें तो इन बातों की कोई परवा नहीं, अपनी चुहल से काम है।”
बाबू — “बच्चों की प्यारी-प्यारी बातें सुनकर, तो चाहे कैसा जी हो, प्रसन्न हो जाता है। मगर तुम्हारा हृदय न जाने किस धातु का बना है?”
रामेश्वरी — “तुम्हारा हो जाता होगा। और, होने को होता भी है, मगर वैसा बच्चा भी तो हो। पराये धन से भी कहीं घर भरता है।”
बाबू साहब कुछ देर चुप रहकर बोले — “यदि अपना सगा भतीजा भी पराया धन कहा जा सकता है, तो फिर मैं नहीं समझता कि अपना धन किसे कहेंगे?”
रामेश्वरी कुछ उत्तेजित होकर बोली — “बातें बनाना बहुत आता है। तुम्हारा भतीजा है, तुम चाहे जो समझो, पर मुझे ये बातें अच्छी नहीं लगतीं। हमारे भाग ही फूटे हैं! नहीं तो ये दिन काहे को देखने पड़ते? तुम्हारा चलन तो दुनिया से निराला है। आदमी सन्तान के लिए न जाने क्या-क्या करते हैं — पूजा-पाठ कराते हैं, व्रत रखते हैं, पर तुम्हें इन बातों से क्या काम? रात-दिन भाई-भतीजों में मगन रहते हो।”
बाबू साहब के मुख पर घृणा का भाव झलक आया। उन्होंने कहा — “पूजा-पाठ, व्रत, सब ढकोसला है। जो वस्तु भाग्य में नहीं, वह पूजा-पाठ से कभी प्राप्त नहीं हो सकती। मेरा यह अटल विश्वास है।”
श्रीमती जी कुछ-कुछ रुआंसे स्वर में बोलीं — “इसी विश्वास ने तो सब कुछ चौपट कर दिया है। ऐसे ही विश्वास पर सब बैठ जायें, तो काम कैसे चले? सब विश्वास पर ही बैठे रहें, आदमी काहे को किसी बात के लिए चेष्टा करे।”
बाबू साहब ने सोचा कि मूर्ख स्त्री के मुंह लगना ठीक नहीं, अतएव वह स्त्री की बात का कुछ उत्तर न देकर वहां से टल गये।
2
बाबू रामजीदास धनी आदमी हैं। कपड़े की आढ़त का काम करते हैं। लेन-देन भी है। इनके एक छोटा भाई है। उसका नाम है कृष्णदास। दोनों भाइयों का परिवार एक ही घर में है। बाबू रामजीदास की आयु 35 वर्ष के लगभग है, और छोटे भाई कृष्णदास की 21 वर्ष के लगभग। रामजीदास निस्सन्तान हैं। कृष्णदास की दो सन्तानें हैं। एक पुत्र — वही पुत्र, जिससे पाठक परिचित हो चुके हैं — और एक कन्या है। कन्या की आयु दो वर्ष के लगभग है।
रामजीदास अपने छोटे भाई और उनकी सन्तान पर बड़ा स्नेह रखते हैं — ऐसा स्नेह कि उसके प्रभाव से उन्हें अपनी सन्तानहीनता कभी खटकती ही नहीं। छोटे भाई की सन्तान को वे अपनी ही सन्तान समझते हैं। दोनों बच्चे भी रामजीदास से इतने हिले हैं कि उन्हें अपने पिता से अधिक समझते हैं। परन्तु रामजीदास की पत्नी रामेश्वरी को अपनी सन्तानहीनता का बड़ा दु:ख है। वह दिन-रात सन्तान ही की सोच में घुला करती हैं। छोटे भाई की सन्तान पर पति का प्रेम उनकी आंखों में कांटे की तरह खटकता है।
रात को भोजन इत्यादि से निवृत्त होकर रामजीदास शैया पर लेटे हुए शीतल और मन्द वायु का आनन्द ले रहे थे। पास ही दूसरी शैया पर रामेश्वरी, हथेली पर सिर रखे, किसी चिन्ता में डूबी हुई थीं। दोनों बच्चे अभी बाबू साहब के पास से उठकर अपनी मां के पास गये थे। बाबू साहब ने अपनी स्त्री की ओर करवट लेकर कहा, “आज तुमने मनोहर को इस बुरी तरह से ढकेला था कि मुझे अब तक उसका दु:ख है। कभी-कभी तो तुम्हारा व्यवहार बिल्कुल ही अमानुषिक हो उठता है।”
रामेश्वरी बोली — “तुम्हीं ने मुझे ऐसा बना रखा है। उस दिन उस पंडित ने कहा था कि हम दोनों के जन्मपत्र में सन्तान का जोग लिखा है, और उपाय करने से सन्तान हो भी सकती है। उसने उपाय भी बताये थे, पर तुमने उनमें से एक भी उपाय करके न देखा। बस, तुम तो इन्हीं दोनों में मगन हो। तुम्हारी इस बात से रात-दिन मेरा कलेजा सुलगता रहता है। आदमी उपाय तो करके देखता है। फिर होना-न होना तो भगवान् के अधीन है।”
बाबू साहब हंसकर बोले — “तुम्हारी-जैसी सीधी स्त्री से भी क्या कहूं, तुम इन ज्योतिषियों की बातों पर विश्वास करती हो, जो दुनियाभर के झूठे और धूर्त हैं। ये झूठ बोलने ही की रोटियां खाते हैं।”
रामेश्वरी तुनककर बोली — “तुम्हें तो सारा संसार झूठा ही दिखाई पड़ता है। ये पोथी-पुराण भी सब झूठे हैं। पंडित कुछ अपनी तरफ़ से तो बनाकर कहते नहीं हैं। शास्त्र में जो लिखा है, वही ये भी कहते हैं। शास्त्र झूठा है, तो वे भी झूठे। अंग्रेज़ी क्या पढ़ी, अपने आगे किसी को गिनते ही नहीं। जो बातें बाप-दादे के ज़माने से चली आयी हैं, उन्हें भी झूठा बताते हैं।”
बाबू साहब — “तुम बात तो समझती नहीं, अपनी ही ओटे जाती हो। मैं यह नहीं कहता कि ज्योतिष शास्त्र झूठा है। सम्भव है, वह सच्चा हो, परन्तु ज्योतिषियों में अधिकांश झूठे होते हैं। उन्हें ज्योतिष का पूर्ण ज्ञान तो होता नहीं, दो-एक छोटी-मोटी पुस्तकें पढ़ कर ज्योतिषी बन बैठते हैं और लोगों को ठगते-फिरते हैं। ऐसी दशा में उनकी बातों पर कैसे विश्वास किया जा सकता है।”
रामेश्वरी — “हूँ, सब झूठे ही हैं। तुम्हीं एक बड़े सच्चे हो। अच्छा, एक बात पूछती हूँ। भला तुम्हारे जी में सन्तान की इच्छा क्या कभी नहीं होती?”
इस बार रामेश्वरी ने बाबू साहब के हृदय का कोमल स्थान पकड़ा, वह कुछ देर चुप रहे। तत्पश्चात् एक लम्बी सांस लेकर बोले — “भला ऐसा कौन मनुष्य होगा, जिसके हृदय में सन्तान का मुख देखने की इच्छा न हो? परन्तु क्या किया जाये? जब नहीं है, और न होने की आशा ही है, तब उसके लिए व्यर्थ चिन्ता करने से क्या लाभ? इसके सिवा, जो बात अपनी सन्तान से होती है, वही भाई की सन्तान से भी हो रही है। जितना स्नेह अपनी पर होता, उतना ही इन पर भी है। जो आनन्द उनकी बाल-क्रीड़ा से आता, वही इनकी क्रीड़ा से भी आ रहा है। फिर मैं नहीं समझता कि चिन्ता क्यों की जाये।”
रामेश्वरी कुढ़कर बोली — “तुम्हारी समझ को मैं क्या कहूं? इसी से तो रात-दिन जला करती हूँ। भला यह तो बताओ कि तुम्हारे पीछे क्या इन्हीं से तुम्हारा नाम चलेगा?”
बाबू साहब हंसकर बोले — “अरे तुम भी कहां की पोच बातें लायीं? नाम सन्तान से नहीं चलता। नाम अपनी सुकृति से चलता है। तुलसीदास को देश का बच्चा-बच्चा जानता है। सूरदास को मरे कितने दिन हो चुके? इसी प्रकार जितने महात्मा हो गये हैं, उन सबका नाम क्या उनकी सन्तान ही की बदौलत चल रहा है? सच पूछो, तो सन्तान से जितनी नाम चलने की आशा रहती है, उतना ही नाम डूब जाने की सम्भावना रहती है। परन्तु सुकृति एक ऐसी वस्तु है, जिससे नाम बढ़ने के सिवा घटने की कभी आशंका रहती ही नहीं। हमारे शहर में राय गिरिधारीलाल कितने नामी आदमी थे? उनके सन्तान कहां है? पर उनकी धर्मशाला और अनाथालय से उनका नाम अब तक चला जा रहा है, और अभी न जाने कितने दिनों तक चलता जायेगा।”
रामेश्वरी — “शास्त्र में लिखा है कि जिसके पुत्र नहीं होता, उसकी मुक्ति नहीं होती?”
बाबू साहब — “मुक्ति पर मुझे विश्वास नहीं। मुक्ति है किस चिड़िया का नाम? यदि मुक्ति होना मान भी लिया जाये, तो यह कैसे माना जा सकता है कि सब पुत्रवानों की मुक्ति हो ही जाती है? मुक्ति का भी क्या सहज उपाय है? ये जितने पुत्रवाले हैं, सभी की तो मुक्ति हो जाती होगी?”
रामेश्वरी निरुत्तर होकर बोली — “अब तुमसे कौन बकवाद करे? तुम तो अपने सामने किसी की मानते ही नहीं।”
3
मनुष्य का हृदय बड़ा ममत्व प्रेमी है। कैसी ही उपयोगी और कितनी ही सुन्दर वस्तु क्यों न हो, जब तक उसको परायी समझता है, तब तक मनुष्य उससे प्रेम नहीं करता। किन्तु भद्दी-से-भद्दी और बिल्कुल काम में न आने वाली वस्तु को भी यदि मनुष्य अपना समझता है, तो उसे प्रेम करता है। परायी वस्तु कितनी मूल्यवान् क्यों न हो, कितनी ही उपयोगी क्यों न हो, कितनी ही सुन्दर क्यों न हो, उसके नष्ट होने पर मनुष्य कुछ भी दु:ख अनुभव नहीं करता, इसलिए कि वह वस्तु उसकी नहीं, परायी है। अपनी वस्तु कितनी ही भद्दी हो, काम में न आने वाली हो, उसके नष्ट होने पर मनुष्य को दुःख होता है, इसलिए कि वह अपनी चीज़ है।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मनुष्य परायी चीज़ से प्रेम करने लगता है। ऐसी दशा में भी जब तक मनुष्य उस वस्तु को अपनी बनाकर नहीं छोड़ता अथवा अपने हृदय में यह विचार दृढ़ नहीं कर लेता कि वह वस्तु मेरी है, तब तक उसे सन्तोष नहीं होता। ममत्व से प्रेम उत्पन्न होता है और प्रेम से ममत्व। इन दोनों का साथ चोली-दामन का-सा है। यह कभी पृथक् नहीं किये जा सकते।
यद्यपि रामेश्वरी को माता बनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था, तथापि उसका हृदय एक माता का हृदय बनने की पूरी योग्यता रखता था। उनके हृदय में वे गुण विद्यमान तथा अन्तर्निहित थे, जो एक माता के हृदय में होते हैं, परन्तु उनका विकास नहीं हुआ था। उनका हृदय उस भूमि की तरह था, जिसमें बीज तो पड़ा हुआ है, परन्तु उसको सींचकर और इस प्रकार बीज को प्रस्फुटित करके भूमि से ऊपर लाने वाला कोई नहीं। इसलिए उनका हृदय उन बच्चों की ओर खिंचता तो था, परन्तु जब उन्हें ध्यान आता था कि ये बच्चे मेरे नहीं, दूसरे के हैं, तब उनके हृदय में उनके प्रति द्वेष उत्पन्न होता था, घृणा पैदा होती थी। विशेषकर, उस समय उनके द्वेष की मात्रा और भी बढ़ जाती थी, जब वह देखती थीं कि उनके पतिदेव उन बच्चों पर प्राण देते हैं, जो उनके (रामेश्वरी के) नहीं हैं।
शाम का समय था। रामेश्वरी खुली छत पर बैठी हवा खा रही थी। पास ही उनकी देवरानी भी बैठी थी। इस समय रामेश्वरी को उन बच्चों का खेलना-कूदना बड़ा भला मालूम हो रहा था। हवा में उड़ते हुए उनके बाल, कमल की तरह खिले हुए उनके नन्हे-मुन्ने मुख, उनकी प्यारी-प्यारी तोतली बातें, उनका चिल्लाना, भागना, लोट जाना इत्यादि क्रीड़ाएं उनके हृदय को शीतल कर रही थीं।
सहसा मनोहर अपनी बहिन को मारने दौड़ा। वह खिलखिलाकर रामेश्वरी की गोद में जा गिरी। उसके पीछे मनोहर दौड़ता हुआ आया, और वह भी उन्हीं की गोद में जा गिरा। रामेश्वरी उस समय सारा द्वेष भूल गयीं। दोनों बच्चों को उसी प्रकार हृदय से लगा लिया, जिस प्रकार वह मनुष्य लगाता है, जो बच्चों के लिए तरस रहा हो। उन्होंने बड़ी सतृष्णता से दोनों को प्यार किया। उस समय यदि कोई अपरिचित मनुष्य उन्हें देखता, तो उसे यही विश्वास होता कि रामेश्वरी ही उन बच्चों की माता हैं। दोनों बच्चे बड़ी देर तक उनकी गोद में खेलते रहे। सहसा उसी समय किसी के आने की आहट पाकर बच्चों की माता वहां से उठकर चली गयी।
“मनोहर, ले रेलगाड़ी।” कहते हुए बाबू रामजीदास छत पर आये। उनका स्वर सुनते ही दोनों बच्चे रामेश्वरी की गोद से तड़पकर निकल भागे।
रामजीदास ने पहले दोनों को खूब प्यार किया, फिर बैठकर रेलगाड़ी दिखाने लगे। इधर रामेश्वरी की नींद-सी टूटी। पति को बच्चों में मगन होते देखकर उनकी भौंहें तन गयीं। बच्चों के प्रति हृदय में फिर वही घृणा और द्वेष का भाव जग उठा। बच्चों को रेलगाड़ी देकर बाबू साहब रामेश्वरी के पास आये और मुस्कराकर बोले — “आज तो तुम बच्चों को बड़ा प्यार कर रही थीं। इससे मालूम होता है कि तुम्हारे हृदय में भी इनके प्रति कुछ प्रेम अवश्य है।”
रामेश्वरी को पति की यह बात बहुत बुरी लगी। उन्हें अपनी कमज़ोरी पर बड़ा दुःख हुआ। केवल दु:ख ही नहीं, अपने ऊपर क्रोध भी आया। वह दु:ख और क्रोध पति के उक्त वाक्य से और भी बढ़ गया। उनकी कमज़ोरी पति पर प्रकट हो गयी, यह बात उनके लिए असह्य हो उठी। रामजीदास बोले — “इसीलिए मैं यह कहता हूँ कि अपनी सन्तान के लिए सोच करना वृथा है। यदि तुम इनसे प्रेम करने लगो, तो तुम्हें ये ही अपनी सन्तान प्रतीत होने लगेंगे। मुझे इस बात से प्रसन्नता है कि तुम इनसे स्नेह करना सीख रही हो।”
यह बात बाबू साहब ने नितान्त शुद्ध हृदय से कही थी, परन्तु रामेश्वरी को इसमें व्यंग्य की तीक्ष्ण गन्ध मालूम हुई। उन्होंने कुढ़कर मन में कहा — “इन्हें मौत भी नहीं आती। मर जायें — पाप कटे, आठों पहर आंखों के सामने रहने से प्यार करने को भी जी ललचा ही उठता है। इनके मारे कलेजा और भी जला रहता है।”
बाबू साहब ने पत्नी को मौन देखकर कहा — “अब झेंपने से क्या लाभ! अपने प्रेम को छिपाने की चेष्टा करना व्यर्थ है। छिपाने की आवश्यकता भी नहीं।”
रामेश्वरी जल-भुनकर बोली — “मुझे क्या पड़ी है, जो मैं प्रेम करूंगी? तुम्हीं को मुबारक रहे। निगोड़े आप ही आ-आ के घुसते हैं। एक घर में रहने से कभी हंसना-बोलना पड़ता है। अभी परसों ज़रा यों ही ढकेल दिया, उस पर तुमने सैकड़ों बातें सुनायीं। संकट में प्राण हैं, न यों चैन, न वों चैन।”
बाबू साहब को पत्नी के वाक्य सुनकर बड़ा क्रोध आया। उन्होंने कर्कश स्वर से कहा — “न जाने कैसे हृदय की स्त्री हो? अभी अच्छी-ख़ासी बैठी बच्चों को प्यार कर रही थीं। मेरे आते ही गिरगिट की तरह रंग बदलने लगीं। अपनी इच्छा से चाहे जो करें, पर मेरे कहने से बल्लियों उछलती है। न जाने मेरी बातों में कौन-सा विष घुला रहता है? यदि मेरा कहना ही बुरा मालूम होता है, तो न कहा करूंगा। पर इतना याद रखो कि अब जो कभी इनके विषय में निगोड़े-सिगोड़े इत्यादि अपशब्द निकाला, तो अच्छा न होगा! तुमसे मुझे ये बच्चे कहीं अधिक प्यारे हैं।”
रामेश्वरी ने इसका कोई उत्तर न दिया। अपने क्षोभ तथा क्रोध को वह आंखों द्वारा निकालने लगी।
4
जैसे ही जैसे बाबू रामजीदास का स्नेह दोनों बच्चों पर बढ़ता जाता, वैसे ही वैसे रामेश्वरी के द्वेष और घृणा की मात्रा भी बढ़ती जाती थी। प्रायः बच्चों के पीछे पति-पत्नी में कहा-सुनी हो जाती थी, और रामेश्वरी को पति के कटु वचन सुनने पड़ते थे। जब रामेश्वरी ने यह देखा कि बच्चों के कारण ही पति की नज़र से गिरती जा रही है, तब उनके हृदय में बड़ा तूफ़ान उठा। उन्होंने सोचा — पराये बच्चों के पीछे मुझसे प्रेम कम करते जाते हैं, मुझे हर समय बुरा-भला कहा करते हैं। इनके लिए बच्चे ही सब कुछ हैं। मैं कुछ भी नहीं। दुनिया मरती जाती है, पर इन दोनों को मौत नहीं आती। ये पैदा होते ही क्यों न मर गये? न ये होते, न मुझे ये दिन देखने पड़ते। जिस दिन ये मरेंगे, उस दिन घी के दीये जलाऊंगी। इन्होंने ही मेरा घर सत्यानाश कर रखा है।
इसी प्रकार कुछ दिन व्यतीत हुए, एक दिन नियमानुसार रामेश्वरी छत पर अकेली बैठी हुई थी। उसके हृदय में अनेक प्रकार के विचार आ रहे थे। विचार और कुछ नहीं वही अपनी निज की सन्तान का अभाव, पति के भाई की सन्तान के प्रति अनुराग इत्यादि। कुछ देर के बाद जब उनके विचार स्वयं उन्हीं को कष्टदायक मालूम होने लगे, तब वह अपना ध्यान दूसरी ओर लगाने के लिए उठकर टहलने लगीं।
वह दौड़ ही रही थीं कि मनोहर दौड़ता हुआ आया। मनोहर को देखकर उनकी भृकुटी चढ़ गयी, और वह छत की चहारदीवारी पर हाथ रखकर खड़ी हो गयीं। सन्ध्या का समय था। आकाश में रंग-बिरंगी पतंगें उड़ रही थीं। मनोहर कुछ देर तक खड़ा पतंगों को देखता और सोचता रहा कि कोई पतंग कटकर उसकी छत पर गिरे तो क्या ही आनन्द आवे। देर तक पतंग गिरने की आशा करने के बाद वह दौड़कर रामेश्वरी के पास आया, और उनकी टांगों से लिपटकर बोला — “ताई, हमें पतंग मंगा दो।”
रामेश्वरी ने झिड़ककर कहा — “चल हट, अपने ताऊ से मांग जाकर।”
मनोहर कुछ अप्रतिभ होकर फिर आकाश की ओर ताकने लगा। थोड़ी देर बाद उससे फिर न रहा गया। इस बार उसने बड़े लाड़ में आकर अत्यन्त करुण स्वर में कहा, “ताई, पतंग मंगा दो, हम भी उड़ावेंगे।”
इस बार उसकी भोली प्रार्थना से रामेश्वरी का कलेजा कुछ पसीज गया। वह कुछ देर तक उसको स्थिर दृष्टि से देखती रहीं। फिर उन्होंने एक लम्बी सांस लेकर मन-ही-मन कहा, “यदि यह मेरा पुत्र होता, तो आज मुझसे बढ़कर भाग्यवान् स्त्री संसार में दूसरी न होती। निगोड़ा मरा कितना सुन्दर है, और कैसी प्यारी-प्यारी बातें करता है। यही जी चाहता है कि उठाकर छाती से लगा लूँ।”
यह सोचकर वह उसके सिर पर हाथ फेरने वाली ही थी कि इतने में मनोहर उन्हें मौन देखकर बोला — “तुम हमें पतंग नहीं मंगवा दोगी, तो ताऊजी से कहकर तुम्हें पिटवायेंगे।”
यद्यपि बच्चे की इस भोली बात में भी बड़ी मधुरता थी, तथापि रामेश्वरी का मुख क्रोध के मारे लाल हो गया। वह उसे झिड़ककर बोली, “जा, कह दे अपने ताऊजी से। देखें, वह मेरा क्या कर लेंगे?”
मनोहर भयभीत होकर उनके पास से हट गया, और फिर सतृष्ण नेत्रों से आकाश में उड़ती हुई पतंगों को देखने लगा। इधर रामेश्वरी ने सोचा, यह सब ताऊजी के दुलार का फल है कि बालिश्त-भर का लड़का मुझे धमकाता है। ईश्वर करे, इस दुलार पर बिजली टूटे।
उसी समय आकाश से पतंग कटकर उसी छत की ओर आयी और रामेश्वरी के ऊपर से होती हुई छज्जे की ओर गयी। छत के चारों ओर चहारदीवारी थी। जहां रामेश्वरी खड़ी हुई थी, केवल वहीं पर एक द्वार था, जिससे छज्जे पर आ-जा सकते थे। रामेश्वरी उस द्वार से सटी हुई खड़ी थी। मनोहर ने पतंग को छज्जे पर जाते देखा। पतंग पकड़ने के लिए वह दौड़कर छज्जे की ओर चला। रामेश्वरी खड़ी देखती रही। मनोहर उनके पास से होकर छज्जे पर चला गया, और उनसे दो फीट की दूरी पर खड़ा होकर पतंग को देखने लगा। पतंग छज्जे पर से होती हुई नीचे घर के आंगन में जा गिरी। एक पैर छज्जे की मुंडेर पर रखकर मनोहर ने नीचे आंगन में झांका और पतंग को नीचे आंगन में गिरते देख प्रसन्नता के मारे फूला न समाया। वह नीचे जाने के लिए शीघ्रता से घूमा, परन्तु घूमते समय मुंडेर पर से उसका पैर फिसल गया। वह नीचे की ओर चला। नीचे जाते-जाते उसके दोनों हाथों में मुंडेर आ गयी। वह उसे पकड़कर लटक गया और रामेश्वरी की ओर देखकर चिल्लाया, “ताई!”
रामेश्वरी ने धड़कते हुए हृदय से इस घटना को देखा। उसके मन में आया कि अच्छा है, मरने दो, सदा का पाप कट जायेगा। यह सोचकर वह एक क्षण के लिए रुकी। उधर मनोहर के हाथ मुंडेर पर से फिसलने लगे। वह अत्यन्त भय तथा करुण नेत्रों से रामेश्वरी की ओर देखकर चिल्लाया, “अरी ताई!”
रामेश्वरी की आंखें मनोहर की आंखों से जा मिलीं। मनोहर की वह करुण दृष्टि देखकर रामेश्वरी का कलेजा मुंह को आ गया। उन्होंने व्याकुल होकर मनोहर को पकड़ने के लिए अपना हाथ बढ़ाया। उनका हाथ मनोहर के हाथ तक पहुंचा ही था कि मनोहर के हाथ से मुंडेर छूट गयी। वह नीचे आ गिरा। रामेश्वरी चीख़ मारकर छज्जे पर गिर पड़ी।
रामेश्वरी एक सप्ताह तक बुख़ार में बेहोश पड़ी रही। कभी-कभी वह जोर से चिल्ला उठतीं, और कहती — “देखो-देखो वह गिरा जा रहा है, उसे बचाओ, दौड़ो, मेरे मनोहर को बचा लो।” कभी वह कहतीं, “बेटा मनोहर, मैंने तुझे नहीं बचाया। हां, हां, मैं चाहती, तो बचा सकती थी, मैंने देर कर दी।” इसी प्रकार के प्रलाप वह किया करतीं।
मनोहर की टांग उखड़ गयी थी। टांग बिठा दी गयी। वह क्रमशः फिर अपनी असली हालत पर आने लगा।
एक सप्ताह बाद रामेश्वरी का ज्वर कम हुआ। अच्छी तरह होश आने पर उन्होंने पूछा, “मनोहर कैसा है?”
रामजीदास ने उत्तर दिया, “अच्छा है।”
रामेश्वरी, “उसे मेरे पास लाओ।”
मनोहर रामेश्वरी के पास लाया गया। रामेश्वरी ने उसे बड़े प्यार से हृदय से लगाया। आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गयी, हिचकियों से गला रुंध गया।
रामेश्वरी कुछ दिनों बाद पूर्ण स्वस्थ हो गयीं। अब वह मनोहर की बहिन कुन्ती से भी द्वेष और घृणा नहीं करतीं और मनोहर तो अब उनका प्राणाधार हो गया है। उसके बिना उन्हें एक क्षण भी कल नहीं पड़ती।
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