‘Tamacha’, a poem by Rishi Kaushik

कोठों पर पैरों में घुँघरू बाँधकर
नाचती रोटियाँ

फटे चीथड़ों से ढके बदन को
हवस की नज़र से बचाती
कचरा बीनने वाली वो लड़की

फुटपाथ पर रात काटने वाला
बेघर इंसान

बचपन बेचकर
चाय के जूठे बर्तन धोने वाला
छोटू

वृद्धाश्रम में बैठी
बूढ़ी माँ

धर्म के नाम पर लड़ने वाले
इस समाज के मुँह पर
मारा गया
ये वो तमाचा हैं
जिसके निशान देश के
हर नुक्क्ड़, स्टेशन
और बाज़ार में दिखायी देते हैं