तन के तट पर मिले हम कई बार, पर
द्वार मन का अभी तक खुला ही नहीं,
डूबकर गल गए हैं हिमालय, मगर
जल के सीने पे इक बुलबुला ही नहीं।

ज़िन्दगी की बिछी सर्प-सी धार पर
अश्रु के साथ ही क़हक़हे बह गए,
ओंठ ऐसे सिये शर्म की डोर से
बोल दो थे, मगर अनकहे रह गए,
सैर करके चमन की मिला क्या हमें?
रंग कलियों का अब तक घुला ही नहीं।

चंदनी छन्द बोकर निरे काग़ज़ी
किस को कविता की ख़ुशबू मिली आज तक?
इस दुनिया की रंगीन गलियों तले
बेवफाई की बदबू मिली आज तक,
लाख तारों के बदले भरी उम्र में
मेरा मन का महाजन तुला ही नहीं।

मर्मरी जिस्म को गर्म साँसें मिलीं,
पर धड़कता हुआ दिल कहाँ खो गया?
चाँद-सा चेहरा झिलमिलाया, मगर
गाल का ख़ुशनुमा तिल कहाँ खो गया?
आँख की राह सावन बहे उम्र भर,
दाग चुनरी का अब तक धुला ही नहीं।

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किशोर काबरा
डॉ॰ किशोर काबरा (जन्म : २६ दिसम्बर १९३४) हिन्दी कवि हैं। साठोत्तरी हिन्दी-कविता के शीर्षस्थ हस्ताक्षरों में उनका महत्वपूर्ण स्थान है। काबरा जी मूलत: कवि हैं, साथ ही निबन्धकार, आलोचक, कहानीकार, शब्द-चित्रकार, अनुवादक एवं संपादक भी हैं।

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