घरौंदे बड़ी मुश्किल से बनते हैं
और टूटते एक पल में हैं

ज़ुबेदा सालों से
अपने शौहर की
धमकी सह रही है,
दो बेटियों के बाद
दस सालों से उसे बेटा
नहीं दे पा रही है

मैंने देखा आरती को
मकान को घर बनाते हुए,
एक-एक तिनका चुन
घरौंदा सजाते हुए,
अब वो खड़ी है
अपने ही घर की उस चौखट पर
जहाँ से ज़रा-सी चूक होते ही
बेदख़ल की जा सकती है
अपनों के हाथों अपने घरौंदे से,
पसीना बहाए- ईंट-ईंट के लिए
पेट काटकर पैसा बचाए
बनाए हुए घर से

पूछने पर- क्यों सह रही है?
आरती ने कहा-
“होइए वही जो राम रची राखा”
ज़ुबेदा ने कहा-
“वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है”
भाव एक ही हैं
बस भाषा अलग थी…

इतने सालों से, ये दोनों
इन जुमलों के सहारे
ज़ुल्मों का बोझ ढो रहीं हैं,
या कहा जाए
ज़ुल्मी को उर्वरा खाद दे रहीं है।
कोई ख़ुदा, कोई राम इन्हें
बचाने नहीं आया,
उनके अन्धेरे जीवन में
दिया जलाने नहीं आया।

ख़ुदा ने तुम्हें
मेहनत के लिए दो हाथ
और राम ने
सोचने के लिए दिमाग़
देकर बन्द कर दी
तुम्हारी मदद की फ़ाइल।
तुमने क्यों छोड़ दी
ज़ंग लगने के लिए
अपने हौसलों की तलवार
अपनी मेहनत की धार
अपने हक़ की कटार?
राम और ख़ुदा की इच्छा पर
जीवन को रौंद दिया,
दो जुमलों के सहारे
दो ज़ुल्मियों को
हौसला दिया।

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