‘Tumhara Maans Machhli Khana’, a poem by Ritika Srivastava

‘सुनो तुम तो खाती नहीं होंगी
माँस और मछली’
फिर गर्व से उसने कहा-
नहीं, नहीं छूती मैं कई सालों से माँस और मछली
बिलकुल नहीं करती कुछ भी ऐसा
जिसको खाने से मैं अशुद्ध हो जाऊँ
मेरे पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन पर लोग कसने लगें ताने
नहीं करती मैं कुछ भी ऐसा जो उठाए मेरी पवित्रता पर सवाल
उसने जोड़ा कि वो निर्मल और कोमल ही रहना चाहती है
जैसे उसके खाने की पसंद और नापसंद
उसके पूरे चरित्र की एक रूपरेखा खींचते हैं!

उसने कहा-
मेरे घर के पुरुष ही माँस और मछली बनाते और खाते हैं
मेरा काम हैं उनके लिए नरम गरम रोटियाँ सेकना
जैसे पुरुष को ज़रूरत ही नहीं नरम दिल होने की
और महिलाओं को ज़रूरत नहीं माँस-मछली खाने की!

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