होश सम्भालते ही
धरा के हर हिस्से के बाबत
मुझे यही ताकीद किया गया कि
“हर रोज़ सूरज के डूबने का अर्थ, घर लौट आना है
उसके बाद किसी पर-पुरुष का कोई भरोसा ही नहीं है!”

अब आप समझ सकते हैं कि
मेरी ज़ात
दुनिया पर भरोसा करते रहने के लिए
सूरज के उगने का कितना इंतज़ार करती है

और क्या आप यह भी समझ सकते हैं कि
हमारे लिए अँधेरे के बाद
किसी पर किया जाने वाला भरोसा
कितनी दुर्लभ घटना है

अगर मैं यह कहूँ कि
मेरी ज़ात सिर्फ़ व सिर्फ़ अँधेरे से डरती है
तो उन तमाम अव्यक्त थरथराहटों का क्या?
जो उनके भीतर
उजाले को देखकर भी पैदा होती हैं
घर के परदों की घनी मोटाई के पीछे
वे अपने हिस्से के अँधेरे को रोज़ गाढ़ा करती हैं।

अँधेरे-उजालों में अपने भय को रोज़
घटाती-बढ़ाती मेरी हमज़ातों
की कमर कसते रहने की सौ ज़िदों को
आप भले ही ऐतिहासिक पल का दर्जा देने लगे हों
लेकिन
मैं अभी भी उसे इतिहास पुकारने का पाप नहीं करना चाहती हूँ।

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मंजुला बिष्ट
बीए. बीएड. गृहणी, स्वतंत्र-लेखन कविता, कहानी व आलेख-लेखन में रुचि उदयपुर (राजस्थान) में निवासइनकी रचनाएँ हंस, अहा! जिंदगी, विश्वगाथा, पर्तों की पड़ताल, माही व स्वर्णवाणी पत्रिका, दैनिक-भास्कर, राजस्थान-पत्रिका, सुबह-सबेरे, प्रभात-ख़बर समाचार-पत्र व हस्ताक्षर, वेब-दुनिया वेब पत्रिका व हिंदीनामा पेज़, बिजूका ब्लॉग में भी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती हैं।

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