अभी दिन के ग्यारह ही बजे थे। जेठ की धूप में श्मशान-भूमि आँवे-सी तप रही थी। कभी-कभी तेज़ हवा के झोंके में उड़ती धूल और इने-गिने पेड़ों का डोलना वातावरण को और भी एकाकी और सूना बना जाते। जीवन के चिह्न के नाम पर थोड़ी दूर पर बसी डोमों की बस्ती। बस्ती के आसपास कुछ सूअर चर रहे थे, दो-तीन कुत्ते भौंक-भौंककर हलकान हुए जा रहे थे। बस्ती के पास में एक टूटा चापाकल गड़ा था। एक औरत दूर से सिर पर घड़ा लिये आती दीख रही थी।
इलाक़े के नामी विधायक काशीनाम के बड़े भाई के अग्नि-संस्कार की तैयारियाँ चल रही थीं। उनके बड़े भाई की मृत्यु कार एक्सीडेण्ट में हो गई थी। पेड़ के नीचे स्वजन मित्रों के साथ बैठे काशीबाबू भारी मन से सारी तैयारियाँ देख रहे थे।
“इतने दिनों बड़े भाई के साथ रहा। माँ-बाप के न रहने पर उन्होंने ही दोनों की कमी पूरी की, सारी जिम्मेदारियाँ निभाई और अचानक इस असार संसार को छोड़कर चल बसे।”
“हुजूर, माई-बाप, किरपा हो तो हम आपसे कुछ कहना चाहते हैं।” गिड़गिड़ाते हुए मुर्दा जलानेवाले श्मशान के डोम मंगतूराम ने हाथ जोड़ दिए। लोगों की बातचीत से मंगतू ने जान लिया था कि इलाके के प्रभावशाली नेता आए हुए हैं। उसके निराश मन में आशा हरियाई।
होश सम्भालते ही उसने देखा था, जब लहकती धरती पर पैर रखना मुश्किल होता, बस्ती की औरतें मीलों दूर एक गँदले पोखरे से पानी लातीं। बारहों महीने बस्ती में पानी के लिए मार-पीट, हाहाकार मचा रहता। सरकारी कागज में डोम-चमारों की दुनिया कितनी सुधर गई थी, लेकिन आज भी कोई उनकी बस्ती के लोगों को अपने आसपास फटकने देना नहीं चाहता था। उनके कुएँ, तालाब या नल के पास जाते ही पीढ़ियों की प्रतिहिंसा सर्र से आँखों में लपलपा उठती। इस श्मशान-घाट की मरम्मत के लिए वे सब अर्जियाँ दे-देकर थक चुके थे, एक-एक बूंद के लिए तरसते-बिलखते रहे थे, लेकिन किसी ने ध्यान देना ज़रूरी नहीं समझा था। मंगतू को गिड़गिड़ाते देख बस्ती के कुछ और लोग भी आ गए थे। इस बार इनकी भी चिरौरी करके देख लिया जाए।
“यही समय है विधायक जी के माथे पर चढ़ने का? तुमइ साले सब, बेला-कुबेला कुछ नहीं देखते हो।” एक व्यक्ति ने डपटकर कहा।
विधायक जी जैसे समाज की पद-प्रतिष्ठा, ऊँच-नीच इन सब व्यवहारों से दूर चले गए थे। श्मशान-भूमि ने उनके हृदय में माया-मोह और अहंकार को दूर कर दिया था। आँखें नम थीं, गला भर्राया हुआ था। मंगतू उन्हें अपना ही लग रहा था। इशारे से उन्होंने उससे समस्या जाननी चाही।
“साहेब, अब इस बस्ती में नहीं रहा जाता। पानी लाने के लिए सबको दूर-दूर जाना पड़ता है। एक कुआँ सरकार ने बहुत पहले बनवाया था, कैसे तो अन्दर से ईंट गहरा गई कि धीरे-धीरे पूरा पानी कीचड़ हो गया। ई चापाकल भी टूटा पड़ा है, कहीं कोई सुनवाई नहीं, सरकारी दफ्तर में अरजी देते-देते गोड़ टूट गए। आप तो दयावान हैं, कुछ पानी का इन्तज़ाम हो जाता तो बस्ती के लोग असीस देते।”
औरतों के साथ कुछ फटेहाल बच्चे भी जमा हो गए थे।
“अच्छा हम देखते हैं, क्या कर सकते हैं, एक दरख्वास्त लेकर मिल लेना। अभी जाओ अपना काम करो।” विधायक जी ने कहा।
मंगतू के लिए विधायक जी साक्षात् ईश्वर बन गए। उसने बड़े ही श्रद्धाभाव से मुर्दे को जलाया।
मुर्दे जलाना उसकी रोटी-रोजी थी। जिस प्रकार नौकरी करने वाले के लिए अपने रोज़-रोज़ के काम में व्यक्तिगत रुचि-अरुचि का सवाल नहीं होता, उसी प्रकार मंगतू के लिए भी रोज़ के आने वाले मुर्दे से कोई खास सरोकार नहीं रहता था। उसने यह काम अपने बाप-दादाओं से सीखा था। बचपन से ही वह बड़े ही निर्लिप्त भाव से ये सारी क्रियाएँ देखता रहता था। उसके बाबा मुर्दे से कपड़े उतार उसे देते, वह तत्परता से उसे दौड़-दौड़कर घर में रख आता। बड़े होते ही उसने बड़ी ही सहजता से इस काम को सँभाल लिया।
अपने जीवन में उसे एक ही मुर्दा जलाने की घटना याद रह गई थी। किसी वहशी दरिन्दे ने नाबालिग बच्ची के साथ बलात्कार कर उसकी गर्दन पर छूरे से गहरा घाव कर दिया था। छोटी बच्ची का चेहरा खिले हुए बेल-सा अत्यन्त सुकुमार था। लगता था इस खूँखार दुनिया से विदा लेते हुए अपनी बन्द आँखों में उसने कई दुःस्वप्न समेट लिये थे। मंगतू ने सपना देखा था, सब रो-धो रहे हैं, उसने अपना काँपता हाथ उसकी गर्दन के घाव पर रख दिया है। सोते में, न जाने क्यों उसके कलेजे से कैसी तो हूक उठी थी कि कई रातों तक आँखें बंद करते ही उस मृतक बालिका की धू-धू जलती चिता और सपने में बालिका की गर्दन के घाव पर रखा उसका थरथराता हाथ, उसे बेचैन करता रहा था।
जब वह थोड़ा समझदार हुआ तो समाज जो उसकी बस्ती से बिलकुल कटा हुआ था, उसकी बहुत-सी बातें उसकी समझ में आने लगीं। एक तरफ ऊँचे-ऊँचे मकान, विशाल पानी की टंकियाँ, चौड़े रास्ते और सारी शहरी सुविधाएँ, जिन्हें वह चकित होकर देखता और दूसरी तरफ युगों से जैसे एक ही रूप में ठहरा हुआ अपना आसपास उसे कचोटता। उसे लगता जब से यह पृथ्वीलोक बना है, वह इसी तरह अभावग्रस्त टूटी-फूटी भिनकती बस्ती में, चरते सूअरों के बीच, मुर्दे जलाते हुए, उड़ती धूल और श्मशान के वीराने में रहता रहा है, रहता रहेगा। दुनिया कहाँ-से-कहाँ निकल जाएगी, लेकिन उसकी दुनिया फ्रेम में जड़ी एक बदरंग तस्वीर की तरह इसी प्रकार जड़ और ठहरी हुई रहेगी।
काशीनाथ स्वर्गवासी बड़े भाई के पीछे होनेवाले सारे क्रिया-कर्म का लेखा-जोखा विचारते हुए भीड़ के साथ लॉन में कुर्सियाँ डलवाए बैठे हुए थे। श्राद्ध में उन्होंने काफी खर्च किया था। बड़े भाई के पीछे गो-दान, सोना-दान, ब्रह्म-भोज, सब संबंधी-परिजनों को खिलाने वगैरह में कोई कमी नहीं रखी थी उन्होंने। अवसाद अब धीरे-धीरे कम हो रहा था, दुनियावी चिन्ताएँ घेर रही थीं।
कई दिनों से मंगतूराम और बस्ती के दो-तीन लोग काशीनाथ जी से मिलने को परेशान थे, लेकिन कोई उन्हें फटकने ही नहीं दे रहा था।
धीरे-धीरे भीड़ छँटने लगी। विधायक जी के लॉन की मखमली घास पर पानी का ताजा छिड़काव हुआ था। मिट्टी और फूलों की सुगन्ध से इस गर्मी में भी ठण्डक पड़ गई थी। साहस करके मंगतू अपने लोगों के साथ बँगले में दरबान की आँख बचाकर घुस ही गया। फोन पर बातें चल रही थीं। मंगतू राह देख रहा था। विधायक जी के साथ के लोग इन सबको घूर रहे थे।
“कहो भाई, क्या झमेला है?” विधायक जी ने पूछा।
“हुजूर, उस रोज आपसे चापाकल के लिए बिनती की थी। अरजी लाए हैं साथ में।” मंगतू ने गला घुटकते हुए दरख्वास्त बढ़ाई।
“चापाकल… कहाँ की बात कर रहे हो भैया?” काशीनाथ जी की भौंहों पर बल पड़ गए।
“जी हुजूर, चापाकल घाट पर लगवाना था। पानी की बहुत दिक्कत है।” मंगतू की देखा-देखी साथ के लोगों ने भी हाथ जोड़ दिए।
“घाट पर? ओ हाँ, याद आया।” काशीनाथ जी को अपनी बात याद आ गई, “अच्छा लाओ एप्लीकेशन रख दो… हूँ… मिलते हैं… देखें कब तक होता है काम। अच्छा अब तुम लोग जाओ, हो जाएगा कुछ-न-कुछ।” काशीनाथ जी ने आश्वासन दिया।
मंगतू और साथ के लोगों की आँखें चमक उठीं। झुंझलाए दरबान और दूसरे लोग भी उन सबको गहरी नज़र से देखने लगे। मंगतू को बँगले में घुसने में जितना तनाव झेलना पड़ा था, अब वह बड़ी ही सहजता से गेट बन्द कर चापाकल की तेज़ धार के मीठे सपने के साथ लौट गया।
“नेताजी, आप चाह देंगे तो चापाकल मुर्दाघाट में तो क्या नरक में भी लग जाएगा, खाली कृपा दृष्टि होनी चाहिए।” कहने वाले की मुद्रा और झुक गई।
“नहीं, सोचते हैं, बेचारों के लिए कुछ इन्तजाम हो ही जाना चाहिए।” वे गम्भीर थे।
तभी सबने देखा कलफदार साड़ी पहने, बड़ा-सा लाल टीका लगाए हुए विधायक जी की पत्नी आ विराजीं। उनके पीछे कुल के पुरोहित जी भी कँधे झुकाए, हाथ जोड़े प्रकट हो गए।
“सुनिए जी, हमारे पण्डित जी भी कुछ कहने आए हैं।” बड़े ही ठस्से से वे बोलीं।
“नेताजी, आप तो अन्नदाता हैं, प्रजा के मालिक ठहरे। एक चापाकल हमारे आँगन में लग जाता। पण्डिताईन को दरवाजे पर जात-कुजात के बीच पानी भरने जाना पड़ता है। आँगन के कुएँ का पानी बहुत नीचे है। एक चापाकल आपकी दया से लग जाता तो हम दोनों प्राणी जब तक जीते, असीसते। कुछ बाग-बगीचा भी हलक तर कर लेते। देवी जी, बड़ा ही उचित अवसर है। समझिए बड़े भैया वैतरणी पार ही कर जाते।” पुरोहित जी ने गद्गद् कण्ठ से स्वर्ग की ओर प्रयाण करते बड़े भैया को भक्तिभाव से हाथ जोड़ दिए।