‘Vasant Mein Prem’, a poem by Chandra Phulaar

वसंत में
प्रकृति कुछ अधिक चटख हो जाती है
फूलों के रंग कुछ और गहरे हो जाते हैं
तितलियाँ कुछ और रंगीन दीख पड़ती हैं
और…
प्रेम कुछ अधिक याद आने लगता है

नहीं
हम वसंत में नहीं बिछड़े थे
न ही मिले थे इस मौसम में
फिर भी ये मौसम जैसे प्रेम का उत्प्रेरक हो
स्मृतियों का भी
दुःख का भी

मैं अब पहले की तरह तारीख़ें नहीं देखती
बरसात की राह भी नहीं
क्योंकि मौसम कोई भी आए
बिछड़े प्रेमियों के लिए
दुःख का मौसम कभी नहीं जाता
पर हाँ
जब भी मन कुछ अधिक कसकने लगता है
दर्द कुछ ज़्यादा उठने लगता है
मैं जान जाती हूँ
वसंत आ गया!

मुझे नहीं पता कि बहुत दूर कितना दूर होता है
पर इतना जानती हूँ कि ‘कभी नहीं’ का अर्थ
सिर्फ़ ‘कभी नहीं’ ही होता है!
और हम फिर कभी नहीं मिलेंगे…
कभी नहीं!

जानते हो अधूरे प्रेम में सबसे दुःखद क्या होता है?
कभी ना पूरी होने वाली प्रतीक्षा…
और उससे भी दुःखद होता है
हर वर्ष आने वाला
‘वसंत’…!

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