‘Vikalp’, a poem by Prita Arvind

मैं सह लेती हर दर्द,
ढक देती हर नीले-हरे निशान
मेकअप की मोटी परतों से,
गढ़ लेती छोटे-मोटे झूठे क़िस्से,
हर चोट की वजह,
चलता रहता सब कुछ वैसे ही
जैसे कुछ हुआ न हो।

लेकिन मासूम आँखों में तैरते प्रश्न
चक्कर काटने लगते हैं मस्तिष्क में,
गोल घेरों में चीलों की तरह
छिलने लगती है आत्मा
नन्हें होठों में ज़ब्त सिसकियों से,
छोटी-छोटी हथेलियों की छुअन
हर ज़ख़्म को दहका देती है शोलों की तरह।

समझा नहीं पाती मैं कि कुछ भी नहीं हुआ,
कुछ भी तो नहीं,
चलता आया है ऐसे ही सदियों से।
और हर चोट मेरे फ़ौलादी फ़ैसले पर
एक मुहर-सी लगा देती है।

और इससे पहले कि एक
साफ़ स्लेट पर लिखी जाए
‘सामान्य’ की वही पुरानी परिभाषा
निकल पड़ते हैं मेरे पैर किसी अनजान डगर की ओर
थामे किसी विकल्प की डोर।

Previous articleमुरदों का गाँव
Next articleवर्जीनिया वुल्फ से सब डरते हैं

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here