एक-एक पत्ता झड़ते हुए
दिन महीने वर्ष भी
झड़ते चले गए चुपचाप
फिर कभी अस्तित्व में थी
वह मधुर वासन्तिक गन्ध
क्या अभी भी बह रही थी
ठूँठ-सूखे पेड़ से
अपनी ही पीठ-पीछे?

अब औचक इस मोड़ पर
विस्मित कर देने वाली
यह पदचाप
उस मदीर गन्ध को
अंग-अंग में भरकर
अंगड़ाई लेता यह वसन्त!

अचरज से भरी है वह कि
बाहर एक भयावह आक्रान्त
दिन-ब-दिन गहराती
वायरस की काली मृत्यु-छाया
फिर भी ढीठता से खड़ा
आमन्त्रित करता यह वसन्त?

न जाने कैसे खिल उठा
सुर्ख़ लाल पलाश
पीला रस-भरा अमलताश
नस-नस में उतरता जाता वसन्त
मात करता रहा
गुज़रते जाते हर दिन पर!
भीतर के भय को भीतर ही दबाते हुए
खिलता जाता यह चेहरा
अनायास हाथ लगे इस
वसन्त को कुतूहल से निहारते हुए।

दिन-भर के श्रम से थकी हारी वह
किस सुख से भर जाती है?
पल-पल आकुल करती
मादक गन्धित रात्रि
उसके पोर-पोर से बहती है?

तभी करवट बदलते हुए
भाप ही लेती है वह ऐसा कुछ
जो सचेत करता है उसे
मुँह बाए खड़े
आने वाले पतझड़ से
और फिर
मूँदकर अपनी आँखें
स्वाधीन हो जाती है वह
भोर की मीठी नींद के
जूझने के लिए
पुनः एक ख़ौफ़ भरे दिन से!

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