‘Zinda Hain Linein Aaj Bhi’, a poem by Mamta Jayant

गुज़र गया बचपन
लाइनों में लगे-लगे
मगर किसी ने बंदी नहीं बनाया
आज क़ैद कर लिया ऑनलाइन ने ख़ुद में

ख़त्म कर दीं वो सभी क़तारें
जो दिलवाया करती थीं
घर का राशन, ईंधन, दूध
व सुपर बाज़ार से सामान
और चुकाया करती थीं बिल
बिजली, पानी व टेलिफ़ोन का

लाइनों में लगकर ही
निपटाए जाते थे सब काम
वही सिखाती थीं समझौता,
समन्वय, संतुलन और संयम
उन क़तारों में समाज की
तस्वीर झलक जाती थी
सच कहूँ तो दुनिया दिख जाती थी

अब नहीं लगतीं कहीं लाइन
सिमट गई है सब अंगुलियों के पोरों में
घर बैठे बुक हो जाता है हर सामान
पसन्द न आने पर लौट भी जाता
बिना किसी नुक़सान

मगर नहीं ख़त्म हुईं लाइनें
ज़िन्दा हैं आज भी
वों लम्बी-लम्बी क़तारें
जो बन गयी हैं मन की तलवारें
नहीं पहुँचने देती इंसान को इंसानियत तक

ऑनलाइन शॉपिंग ने सिखायी है
विकास की परिभाषा
पर कहीं कम हो गयी वो आशा
जो बसती थी एक-दूसरे की
ख़ुशी और पीर में

शायद नहीं मिल पाता सब ऑनलाइन
छूट जाता है कुछ
वो भीड़ का जज़्बा,
मोल-भाव का आनन्द,
रंगों से सजा बाज़ार,
एक ही चीज़ को देखना चार बार
घर के बाहर बिखरे
लोगों का व्यवहार

बेशक समय के अभाव में
ख़ुश हो जाते हैं
कुछ अच्छा तो कुछ बुरा पाते हैं
परिवर्तन संसार का नियम है
यह सोच मन को बहलाते हैं!

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