‘Andheron Ke Prati Prem’, a poem by Anupama Mishra

भावनाशून्य मन में घूमती परछाइयाँ
बिस्तर पर पड़ी सलवटों में छिपी उदासियाँ,
उघड़े हुए बदन को ढकती हुई आत्मा।
ठिठुरते हृदय
स्नेह से रीते पड़े ठण्डे मन में,
जहाँ प्रेम की अग्नि
समूल बर्फ़ बन चुकी है।
बड़ी और झूठी शुष्क मुस्कुराहट के साथ
मिथ्या आलिंगन
जिसका अन्त
तकिये और बिछौने के इर्द-गिर्द ही कहीं
सिमट जाता है,
उस प्रेम का विस्तार
बस वहीं तक रहता है सीमित
और रात के अँधेरों के उल्लू
अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से
रात्रि की कालिमा को घूरते हैं
और पातें हैं अपने चारों तरफ़
झूठा प्रेम,
वासना में लिप्त चादरें
भोग विलास की कुरूपता,
जो रात्रि की कालिख में घुलकर
भद्दी दीवारों के सुराख़ों से झाँकते हैं…

दिन होने पर वह उल्लू हो जाता है दृष्टिहीन
और देख नहीं पाता वह
दिन का उजलापन,
देवस्थान की पवित्रता,
फूलों की अनोखी सुगन्ध,
तितलियों के आकर्षक रंग,
बिरले पक्षियों के सुनहरे पंख,
बड़े पेड़ों की हरीतिमा
तो कहीं सुखद छाँव
और
नन्हे बच्चों के दूध के दाँत।

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अनुपमा मिश्रा
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