‘Apatni’, a story by Mamta Kalia

हम लोग अपने जूते समुद्र तट पर ही मैले कर चुके थे। जहाँ ऊंची-ऊंची सूखी रेत थी, उसमें चले थे और अब हरीश के जूतों की पॉलिश व मेरे पंजों पर लगी क्यूटेक्स धुंधली हो गयी थी। मेरी साड़ी क़ी परतें भी इधर-उधर हो गयीं थीं। मैंने हरीश से कहा, उन लोगों के घर फिर कभी चलेंगे।

हम कह चुके थे लेकिन!

मैंने आज भी वही साड़ी पहनी हुई है। मैंने बहाना बनाया। वैसे बात सच थी। ऐसा सिर्फ लापरवाही से हुआ था। और भी कई साड़ियां कलफ लगी रखीं थीं पर मैं, पता नहीं कैसे यही साड़ी पहन आई थी।

तुम्हारे कहने से पहले मैं यह समझ गया था। हरि ने कहा। उसे हर बात का पहले से ही भान हो जाता था, इससे बात आगे बढ़ाने का कोई मौका नहीं रहता। फिर हम लोग चुप-चुप चलते रहते, इधर उधर के लोगों व समुद्र को देखते हुए। जब हम घर में होते, बहुत बातें करते और बेफिक्री से लेटे-लेटे ट्रांजिस्टर सुनते। पर पता नहीं क्यों बाहर आते ही हम नर्वस हो जाते। हरि बार-बार अपनी जेब में झांक कर देख लेता कि पैसे अपनी जगह पर हैं कि नहीं, और मैं बार-बार याद करती रहती कि मैंने आलमारी में ठीक से ताला लगाया कि नहीं।

हवा हमसे विपरीत बह रही थी। हरीश ने कहा, तुम्हारी चप्पलें कितनी गन्दी लग रही हैं। तुम इन्हें धोती क्यों नहीं?

कोई बात नहीं, मैं इन्हें साड़ी में छिपा लूंगी। मैंने कहा ।

हम उन लोगों के घर के सामने आ गये थे। हमने सिर उठा कर देखा, उनके घर में रोशनी थी।

उन्हें हमारा आना याद है।

उन्हें दरवाजा खोलने में पांच मिनट लगे। हमेशा की तरह दरवाजा प्रबोध ने खोला। लीला लेटी हुई थी। उसने उठने की कोई कोशिश न करते हुए कहा, मुझे हवा तीखी लग रही थी। उसने मुझे भी साथ लेटने के लिये आमंत्रित किया। मैंने कहा, मेरा मन नहीं है। उसने बिस्तर से मेरी ओर फिल्मफेयर फेंका। मैंने लोक लिया।

हरि आंखें घुमा-घुमा कर अपने पुराने कमरे को देख रहा था। वह यहां बहुत दिनों बाद आया था। मैंने आने ही नहीं दिया था। जब भी उसने यहां आना चाहा था, मैंने बियर मंगवा दी थी और बियर की शर्त पर मैं उसे किसी भी बात से रोक सकती थी। मुझे लगता था कि हरि इन लोगों से ज्यादा मिला तो बिगड़ जाएगा। शादी से पहले वह यहीं रहता था। प्रबोध ने शादी के बाद हमसे कहा था कि हम सब साथ रह सकते हैं। एक पलंग पर वे और एक पर हम सो जाया करेंगे, पर मैं घबरा गई थी। एक ही कमरे में ऐसे रहना मुझे मंजूर नहीं था, चाहे उससे हमारे खर्च में काफी फर्क पड़ता। मैं तो दूसरों की उपस्थिति में पांव भी ऊपर समेट कर नहीं बैठ सकती थी। मैंने हरि से कहा था, मैं जल्दी नौकरी ढूँढ लूंगी, वह अलग मकान की तलाश करे।

प्रबोध ने बताया, उसने बाथरूम में गीज़र लगवाया है। हरीश ने मेरी तरफ उत्साह से देखा, चलो देखें।

हम लोग प्रबोध के पीछे-पीछे बाथरूम में चले गये। उसने खोलकर बताया। फिर उसने वह पैग दिखाया जहां तौलिया सिर्फ खोंस देने से ही लटक जाता था। हरि बच्चों की तरह खुश हो गया।

जब हम लौट कर आए लीला उठ चुकी थी और ब्लाउज क़े बटन लगा रही थी। जल्दी-जल्दी में हुक अन्दर नहीं जा रहे थे। मैंने अपने पीछे आते हरि और प्रबोध को रोक दिया। बटन लगा कर लीला ने कहा, आने दो, साड़ी तो मैं उनके सामने भी पहन सकती हूँ।

वे अन्दर आ गये।

प्रबोध बता रहा था, उसने नए दो सूट सिलवाये हैं और मखमल का क्विल्ट खरीदा है, जो लीला ने अभी निकालने नहीं दिया है। लीला को शीशे के सामने इतने इत्मीनान से साड़ी बांधते देख कर मुझे बुरा लग रहा था।

और हरि था कि प्रबोध की नई माचिस की डिबिया भी देखना चाहता था। वह देखता और खुश हो जाता जैसे प्रबोध ने यह सब उसे भेंट में दे दिया हो।

लीला हमारे सामने कुरसी पर बैठ गई। वह हमेशा पैर चौड़े करके बैठती थी, हालांकि उसके एक भी बच्चा नहीं हुआ था। उसके चेहरे की बेफिक्री मुझे नापसंद थी। उसे बेफिक्र होने का कोई हक नहीं था। अभी तो पहली पत्नी से प्रबोध को तलाक भी नहीं मिला था। और फिर प्रबोध को दूसरी शादी की कोई जल्दी भी नहीं थी। मेरी समझ में लड़की को चिन्तित होने के लिये यह पर्याप्त कारण था।

उसे घर में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसने कभी अपने यहाँ आने वालों से यह नहीं पूछा कि वे लोग क्या पीना चाहेंगे। वह तो बस सोफे पर पांव चौड़े कर बैठ जाती थी।

हर बार प्रबोध ही रसोई में जाकर नौकर को हिदायत देता था। इसलिये बहुत बार जब हम चाय की आशा करते होते थे, हमारे आगे अचानक लेमन स्क्वैश आ जाता था। नौकर स्क्वैश अच्छा बनाने की गर्ज से कम पानी ज्यादा सिरप डाल लाता था। मैं इसलिये स्क्वैश खत्म करते ही मुंह में जिन्तान की एक गोली डाल लेती थी।

प्रबोध ने मुझसे पूछा, कहीं एप्लाय कर रखा है?

नहीं- मैंने कहा।

ऐसे तुम्हें कभी नौकरी नहीं मिलनी। तुम भवन वालों का डिप्लोमा ले लो और लीला की तरह काम शुरु करो।

मैं चुप रही। आगे पढ़ने का मेरा कोई इरादा नहीं था। बल्कि मैंने तो बी ए भी रो-रोकर किया है। नौकरी करना मुझे पसन्द नहीं था। वह तो मैं हरि को खुश करने के लिये कह देती थी कि उसके दफ्तर जाते ही मैं रोज ‘आवश्यकता है’ कॉलम ध्यान से पढ़ती हूँ और नौकरी करना मुझे थ्रिलिंग लगेगा।

फिर जो काम लीला करती थी उसके बारे में मुझे शुबहा था। उसने कभी अपने मुंह से नहीं बताया कि वह क्या करती थी। हरि के अनुसार, ज्यादा बोलना उसकी आदत नहीं थी। पर मैंने आज तक किसी वर्किंग गर्ल को इतना चुप नहीं देखा था।

प्रबोध ने मुझे कुरेद दिया था। मैंने भी कुरेदने की गर्ज से कहा, सूट क्या शादी के लिये सिलवाये हैं?

प्रबोध बिना झेंपे बोला – शादी में जरीदार अचकन पहनूंगा और सन एण्ड सैण्ड में दावत दूंगा। जिसमें सभी फिल्मी हस्तियां और शहर के व्यवसायी आयेंगे। लीला उस दिन इम्पोर्टेड विग लगायेगी और रूबीज़ पहनेगी।

लीला विग लगा कर, चौड़ी टांगे करके बैठेगी – यह सोच कर मुझे हंसी आ गई। मैंने कहा, शादी तुम लोग रिटायरमेन्ट के बाद करोगे क्या?

लीला अब तक सुस्त हो चुकी थी। मुझे खुशी हुई। जब हम लोग आये थे उसे डनलप के बिस्तर में दुबके देख मुझे ईष्या हुई थी। इतनी साधारण लड़की को प्रबोध ने बांध रखा था, यह देख कर आश्चर्य होता था। उसकी साधारणता की बात मैं अकसर हरि से करती थी। हरि कहता था कि लीला प्रबोध से भी अच्छा आदमी डिजर्व करती थी। फिर हमारी लड़ाई हो जाया करती थी। मुझे प्रबोध से कुछ लेना देना नहीं था। शायद अपने नितान्त अकेले और ऊबे क्षणों में भी मैं प्रबोध को ढलि न देती पर फिर भी मुझे चिढ़ होती थी कि उसकी पसन्द इतनी सामान्य है।

प्रबोध ने मेरी ओर ध्यान से देखा, तुम लोग सावधान रहते हो न अब?

मुझे सवाल अखरा। एक बार प्रबोध के डाक्टर से मदद लेने से ही उसे यह हक महसूस हो, मैं यह नहीं चाहती थी। और हरीश था कि उसकी बात का विरोध करता ही नहीं था।

प्रबोध ने कहा, आजकल उस डॉक्टर ने रेट बढ़ा दिये हैं। पिछले हफ्ते हमें डेढ़ हजार देना पड़ा।

लीला ने सकुचाकर, एक मिनट के लिये घुटने आपस में जोड़ लिये।

कैसी अजीब बात है, महीनों सावधान रहो और एक दिन के आलस से डेढ़ हज़ार रूपये निकल जायें। प्रबोध बोला।

हरि मुस्कुरा दिया, उसने लीला से कहा, आप लेटिये, आपको कमजोरी महसूस हो रही होगी।

नहीं। लीला ने सिर हिलाया।

मेरा मूड खराब हो गया। एक तो प्रबोध का ऐसी बात शुरु करना ही बदतमीजी थी, ऊपर से इस सन्दर्भ में हरि का लीला से सहानुभूति दिखाना तो बिलकुल नागवार था। हमारी बात और थी। हमारी शादी हो चुकी थी। बल्कि जब हमें जरूरत पड़ी थी तो मुझे सबसे पहले लीला का ध्यान आया था। मैंने हरि से कहा था, चलो लीला से पूछें, उसे ऐसे ठिकाने का जरूर पता होगा।

लीला मेरी तरफ देख रही थी, मैंने भी उसकी ओर देखते हुए कहा, तुम तो कहती थी, तुमने मंगलसूत्र बनाने का आर्डर दिया है।

हाँ, वह कबका आ गया। दिखाऊं? लीला अलमारी की तरफ बढ़ गई।

प्रबोध ने कहा, हमने एक नया और आसान तरीका ढूंढा है, लीला जरा इन्हें वह पैकेट दिखाना…।

मुझे अब गुस्सा आ रहा था। प्रबोध कितना अक्खड़ है – यह मुझे पता था। इसीलिये हरि को मैं इन लोगों से बचा कर रखना चाहती थी।

हरि जिज्ञासावश उसी ओर देख रहा है जहाँ लीला अलमारी में पैकेट ढूंढ रही है।

मैंने कहा, रहने दो मैंने देखा है।

प्रबोध ने कहा, बस ध्यान देने की बात यह है कि एक भी दिन भूलना नहीं है। नहीं तो सारा कोर्स डिस्टर्ब। मैं तो शाम को जब नौकर चाय लेकर आता है तभी एक गोली ट्रे में रख देता हूँ।

लीला आलमारी से मंगलसूत्र लेकर वापस आ गई थी, बोली – कभी किसी दोस्त के घर इनके साथ जाती हूँ तब पहन लेती हूँ।

मैंने कहा, रोज तो तुम पहन भी नहीं सकती ना, कोई मुश्किल खड़ी हो सकती है। कुछ ठहर कर मैंने सहानुभूति से पूछा, अब तो वह प्रबोध को नहीं मिलती?

लीला ने कहा, नहीं मिलती।

उसने मंगलसूत्र मेज पर रख दिया।

प्रबोध की पहली पत्नी इसी समुद्र से लगी सड़क के दूसरे मोड़ पर अपने चाचा के यहाँ रहती थी। हरि ने मुझे बताया था, शुरु-शुरु में जब वह प्रबोध के साथ समुद्र पर घूमने जाता था, उसकी पहली पत्नी अपने चाचा के घर की बालकनी में खड़ी रहती थी और प्रबोध को देखते ही होंठ दांतों में दबा लेती थी। फिर बालकनी में ही दीवार से लगकर बाँहों में सिर छिपा कर रोने लगती थी। जल्दी ही उन लोगों ने उस तरफ जाना छोड़ दिया था।

प्रबोध ने बात का आखिरी टुकड़ा शायद सुना हो क्योंकि उसने हमारी तरफ देखते हुए कहा, गोली मारो मनहूसों को! इस समय हम दुनिया के सबसे दिलचस्प विषय पर बात कर रहे हैं। क्यों हरि, तुम्हें यह तरीका पसन्द आया?

हरि ने कहा, पर यह तो बहुत भुलक्कड़ है। इसे तो रात को दांत साफ करना तक याद नहीं रहता।

मैं कुछ आश्वस्त हुई। हरि ने बातों को ओवन से निकाल दिया था। मैंने खुश होकर कहा, पता नहीं मेरी याददाश्त को शादी के बाद क्या हो गया है? अगर ये न हों तो मुझे तो चप्पल पहनना भी भूल जाये।

हरि ने अचकचा कर मेरे पैरों की तरफ देखा। वादे के बावजूद मैं पांव छिपाना भूल गई थी।

उठते हुए मैंने प्रबोध से कहा, हम लोग बरट्रोली जा रहे हैं, आज स्पेशल सेशन है, तुम चलोगे?

प्रबोध ने लीला की तरफ देखा और कहा, नहीं अभी इसे नाचने में तकलीफ होगी।

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ममता कालिया
ममता कालिया (02 नवम्बर, 1940) एक प्रमुख भारतीय लेखिका हैं। वे कहानी, नाटक, उपन्यास, निबंध, कविता और पत्रकारिता अर्थात साहित्य की लगभग सभी विधाओं में हस्तक्षेप रखती हैं। हिन्दी कहानी के परिदृश्य पर उनकी उपस्थिति सातवें दशक से निरन्तर बनी हुई है। लगभग आधी सदी के काल खण्ड में उन्होंने 200 से अधिक कहानियों की रचना की है।

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