‘Bas Itna’, a poem by Abdul Malik Khan
मैंने कब कहा
कि मुझे कबाब बिरियानी
और काजू किशमिश का कलेवा दो
तीखी सुगन्ध से सराबोर सतरंगी पोशाक दो,
मैंने कब माँगी चमचमाती कार,
फूलों के हार
आलीशान फ़्लैट
हीरे की अँगूठी
सोने की चेन
श्वान, लॉन, रम और शेम्पेन…
मैंने तो बस इतना चाहा
कि जब खेतों की थाली में
दुनिया को रोटी परोसने के लिए
मैं धान की फसल रोप रहा होऊँ
तब मेरे पेट की ट्यूब
भूख के काँटे से पंक्चर न पड़ी रहे
मेरी पत्नी की तार-तार साड़ी में से झाँकते
सौन्दर्य के प्रकाश को
अँधियारे के अनधिकारी दाँत ज़ख्मी न कर पाएँ
जलती धूल हमारे तलुओं का रंग न बदले
और वक़्त का गिरगिट
रंग बदलने पर उतारू हो जाए
तो हम बेमौत न मारे जाएँ
बल्कि अपने छोटे से घर में
नयी सुबह का इन्तज़ार कर सकें।
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मार्मिक रचना
bhut khoob