‘Bheed’, a poem by Adarsh Bhushan
भीड़ ने
सिर्फ़
भिड़ना सीखा है,
दस्तक तो
सवाल देते हैं
भूखी जून के
अंधे बस्त के
टूटे विश्वास के
लंगड़े तंत्र के
लाइलाज स्वप्न के-
कि इस बार
चुनाव किस मुद्दे
पर लड़ा जाए?
कि इस बार लोकतंत्र
कौन सी
नयी बैसाखी
लेकर आया है?
कि इस बार
मौन कौन से
नए दर्ज़ी से
लिबास सिलवाने
जाएगा?
कि इस बार
इंसानियत में
कौन से
नए रंग की
मिलावट की जाएगी?
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