एक वे थीं कि जाग रहीं सदियों से
उनकी नींदों में घुला था तारा भोर का
आद्रा नक्षत्र की बाँह थामे
दिन आरम्भ होता उनके अभ्यस्त हाथों से
फिर भी उनके हिस्से
नहीं आया कोई दर्शन जीवन का
रहस्य, जिसकी खोज में बीत गए कल्प कितने
उनकी आँखों से रहे दूर ही

वे भूले से भी नहीं सोच पायीं
कि उठकर नीम अंधेरे
खोज लें कोई सत्य जीवन की नश्वरता का
जागृत कर अन्तःप्रज्ञा लगा लें धुनी
कर लें थोड़ा ब्रह्म-सम्वाद ही
शून्य शिखर पर पहुँच लें, ले मौन समाधि

घर के वृहत्चक्र से निकल
कर लें प्राप्त अलौकिक ज्ञान
रच डालें कोई महाकाव्य
राग-रागनियों को न्योत दें
या भर लें आँखों में झरता हरशृंगार
आधी नींद, आधी जाग भर आँखों में
वे करती रहीं प्रतीक्षा ब्रह्म-मुर्हूत की
ज्ञात था उन्हें, कि उनके ज़रा-सी देरी पर
पलट जाएगी पृथ्वी
कुपित हो जाएँगे देवता धरती के
थम जाएगा जीवन चक्र

उनकी आध्यात्मिकता से घबरा
युग के याज्ञवल्क्य लगाएँगे गुहार
चाय की… बारी-बारी
और वे, दुनिया की आँख खुलने से पहले
झाड़ बुहारकर टाँग देगीं जीवन को
दिन की खूँटी पे…

सीमा सिंह की कविता 'तुम्हारे पाँव'

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