एक दीवार थी। थोड़ी झुककर खड़ी रहती थी। उसके खड़े रहने के पीछे किसी बंटवारे का उद्देश्य नहीं था। कोई गहरा नाला था, जो उसके पीछे बहता था, शायद उसे ही छिपाने या लोगों को एक प्रकार उस गहरे नाले की तरफ जाने से रोकने के लिए उसे बनाया गया होगा। हालाँकि वह दीवार नाले से उठने वाली बदबू को रोक पाने में असमर्थ हो जाती, जिस दिन हवा के कुछ घुसपैठिए बड़ी तेजी से उसे लांघ जाते।
कुछ लोगों ने मिलकर एक रोज़ नाले के विपरीत, दीवार की देह पर कई रंग-बिरंगी मनमोहक कलाकृतियां बना डाली। कुछ सुंदर पुष्पचित्र, काव्यपंक्ति तथा अन्य रचनात्मक दृश्य उकेर डाले। पूरी दीवार महक उठी। कई बार हमारी आंख ही हमारी नाक बन जाती है, हम चीजों को अपने आंखों से सूंघने लगते हैं। हृदय से रचे गए दृश्य जब किसी प्रदूषित हवा में भी घुल जाते हैं तब इतना तो ज़रूर करते हैं कि कोई साँस न थम सके।
रंगीन दीवार और भी रंगीन होती गयी। पहली बारिश के बाद कुछ रंग उतरकर नीचे मिट्टी में जा मिले और रंगीन घास बनकर उगे। सतरंगी दीवार के नीचे अब लाल-पीली-सुगापंछी-हरी घास का मधुर फैलाव हो गया। लोग सुबह शाम अब उस रंगीन कालीन पर बैठ, दीवार पर अपने पीठ टिका घंटो सुस्ताते, गुनगुनाते व तमाम मनोरंजन के साथ तरह-तरह के खाद्य प्रतीकों से उदर क्रीड़ा करते। प्रतीकों के जो अवशेष बच जाते, उन्हें वे आदतन- बेवज़ह हवा में उछाल-उछाल नाले में फेंक देते।
कहते हैं, निरंतरता में बल होता है, चाहे दिशा कोई भी हो। लोग भी इतने निरंतर धाराप्रवाह अपनी आदतों के प्लास्टिक्स को किसी ध्वज की भाँति हवा में लहराकर उस नाले में फेंक रहे थे कि एक दिन उनकी बेवज़ह आदतों के अवशेष बड़े जबरदस्त से जाकर नाले में फंस गए। नाले की साँस थमने लगी। नाले में बहते पानी की अकुलाहट ऐसी बढ़ी कि देखते ही देखते वह दीवार चढ़ने लगी। हाहाकार मच गया, बड़े- बड़े विशेषज्ञ इंजीनियर्स बुलवाये गए। चीन से भी बड़ी-लंबी-ऊंची-नई दीवार का निर्माण हुआ, पानी उसे भी फाँद गयी। पूरी धरती दीवारों से पाट दी गयी पर लापरवाही व बेअक़्ली की प्लास्टिक इस क़दर नाले को जकड़ी थी कि पूरी धरती की दीवारें महज़ नाले का किनारा बनने का इंतज़ार कर रही थी।
यह सब बीतते हुए दुनिया के सबसे अंतिम दीवार पर पीठ टिकाये मैं सोच रहा था कि दीवारें भी तुम्हें तभी तक पीठ टिकाने का मौका देती हैं, जब तक तुम उसके पीठ पीछे गुज़रती उलझनों में उलझनें न बढ़ाओ।