यह है कलकत्ता का बहूबाज़ार, जिसके एक ओर सरकारी अफ़सरों तथा महाजनों के विशाल भवन हैं और दूसरी ओर पीछे उसी अटपट सड़क के पास मिल मज़दूरों तथा दूसरे प्रकार के श्रमजीवियों की बस्ती है।

नन्हे-नन्हे झोपड़ों तथा मकानों की बहुलता के कारण सारी बस्ती एक घर-सी दिखायी पड़ती है। निःसन्देह वह एक घर ही है जहाँ जीवन यथार्थ परिभाषा में चलता है। धर्म श्रम की छाया में विलीन है। चलना जानने वाला बच्चा भी गृह-कार्यों में सहायक है।

नूरी उसी बस्ती की एक कन्या है। वह नित्य सन्ध्या समय अपनी एक छोटी बहन के साथ नन्हे-से काठ के ठेले को ठेल-ठेल कर मूँगफली बेचती है। आज से नहीं, दस वर्ष से वह मधुर गानों से उस सड़क पर चलने वालों से परिचित है। वह भी जीवन की गतिविधि के साथ अनुभवों का जाल बुनती जा रही है। एक ओर विशाल अट्टालिकाएँ उसकी ओर पीठ किए खड़ी हैं, दूसरी ओर वही बस्ती अपना दामन फैलाये उससे वर्षों से कह रही है, “नूरी! आ तेरी मूँगफली के ग्राहक तो इस ओर बसे हैं। तू क्यों बेकार अपने मधुर संगीत को निर्जीव दीवारों के शुष्क उर पर लुटाती है।”

इस पर नूरी एक लम्बी साँस लेकर कह उठी : “चल मरियम, अपनी बस्ती की ओर चलें। वहाँ लड़के मूँगफली ख़रीदेंगे।” और अपनी गाड़ी को टेढ़ी-मेढ़ी गलियों की ओर घुमा कर चल देती।

नूरी की तेज आवाज़ को सुनते ही मज़दूरों के छोटे-छोटे बच्चे ‘नूरी आयी, नूरी आयी’ कहकर उसे घेर लेते। थोड़े ही समय में वह अपनी झोली साफ़ कर, पैसे को अपनी फटी-पुरानी ओढ़नी के किनारों में बांधकर, गाड़ी को खड़खड़ाती हुई घर की ओर चली आती।

नित्य जीवन की इतनी विषमता और कठोरता के बीच जीवन बिताने वाली नूरी का हृदय अनुभूतियों का घर बन गया था। उसे लगता था जैसे जीवन आवश्यकताओं से इतना जुड़ा हुआ है कि उसे अलग करना जीवन को निर्जीव बना देना है, इसी में गति है, इसी में प्रवाह है। वह सोचती, आज उसे एक सलवार और फ़्रॉक की बहुत आवश्यकता है। यह कितना उपहासजनक-सा ज्ञात हो रहा है कि ओढ़नी के तार-तार अलग हो गये हैं, अम्मा तो इसे देखती है पर वही बेचारी क्या करें; पैसे तो होंगे नहीं। सोच रही थी कि माँ ने बाहर से पुकारा, “नूरी! जा बेटी मूँगफली बेच आ, समय हो गया है!” और वह चौंक पड़ी।

माँ कहती गई, “तेरे कपड़े फट गये हैं; मैं आज गुदड़ी बाज़ार जाऊँगी, यदि मिल गया तो लेती आऊँगी। कुछ अधिक बेच लिया करो बेटी।”

नूरी और मरियम अपने कण्ठस्वरों को मिलाती हुई, गा-गाकर उसी काठ के ठेले को खड़खड़ाती फिर उसी राह चल पड़ीं। आज नूरी अधिक उत्साहित थी क्योंकि यदि वह अधिक बेचेगी तो उसे सलवार मिल जाएगी। वह फिर उसी पुरानी सड़क पर अपने ठेले को बढ़ाती चली जा रही थी। गाते-गाते जब थक जाती थी तो कहीं-कहीं रुक कर आने वाले आदमियों को भी देख लिया करती थी।

कमल ने अपने भवन के ऊपरी भाग से इस कल-कण्ठ को सुना और सोचने लगा – यह कौन है जो इतने मीठे शब्दों में गा रही है। ऊपर से नीचे झाँका तो एक युवती को एक छोटी-सी लड़की के साथ सर खोले देखा। उसके बाल संन्यासियों के बालों की तरह उलझे हुए थे। कमल को छह वर्ष पहले की बात याद आ गई। उस याद में उसने बालिका नूरी को देखा जिसमें एक समय चंचलता थी। वह दौड़कर आती। ‘बाबू जी यह मूँगफली है’ कहकर वह फिर लौटने की चेष्टा करती और तब मैं कह उठता, ‘पैसे तो लेती जा’। हाँ, केवल मैंने एक बार उससे यह अवश्य कह दिया था, ‘नूरी तुम क्यों बेचती रहती हो!’ कितनी सरल थी वह, कितना भोलापन था उसमें! और फिर तीक्ष्ण स्वरों के गाने ने उसके विचारों को मग्न कर दिया।

कमल धीरे-धीरे नीचे उतरा तो देखते ही उसके मुख से निकल पड़ा, “नूरी!” पर सहसा वह रुक गया, शायद कोई दूसरी लड़की न हो, पर नूरी ने देखकर पहचान लिया और लजाकर नीचे देखने लगी। कमल भी समझ गया कि यह वही नूरी है पर समय ने इस पर कितना रंग पोत दिया है। वह मौन खड़ा देख रहा था – कितना बिखरा सौन्दर्य है कि यदि इसे इकट्ठा कर लिया जाए तो देव कन्याएँ भी परास्त हो जाएँ। गौरवर्णी स्वस्थ शरीर इन फटे चिथड़ों से उन्मुक्त होकर झाँक रहा है। नेत्रों में कितना माधुर्य है, कितनी शीतलता है पर इस काठ की गाड़ी तथा इन फटे चिथड़ों में सब कुछ प्रच्छन्न है।

वह सहसा यह सब सोच गया और फिर एक बार उसने पुकारा – “नूरी!”

“जी बाबू जी…” नूरी ने नीचे ही सर किए कह दिया।

कमल ने उसकी ओर निर्भीकता से देखते हुए कहा, “तू कहाँ रहती है!”

“मैं तो यहीं रहती हूँ, आप ही बहुत दिनों पर दिखायी दे रहे हैं।” कहकर नूरी ने सर ऊपर किया तो देखा कमल उसकी ओर देख रहा था और फिर वह सहमकर नीचे देखने लगी।

कमल जैसे इस सुप्त सौन्दर्य को परख गया हो; उसका हृदय परबस हो गया। उसने कहा, “मैं तो छह वर्ष से अपने मामा के यहाँ बम्बई में रह रहा हूँ। उनके देहावसान के बाद सारा कारोबार मेरे ही सर पर तो आ पड़ा है।”

नूरी कुछ न बोली। थोड़ी-सी मूँगफली निकालकर मरियम के हाथों भिजवाते हुए, खड़ खड़… अपनी गाड़ी को ठेलकर वह चल पड़ी। कमल दोनों हाथों से मूँगफली लेता हुआ आज जैसे किसी के प्रेमपाश में बंधता जा रहा था। उसने पैसे निकालकर देते हुए कहा, “ले जा, दौड़! देख नूरी गाड़ी ठेलती जा रही है!” और वह वहीं खड़ा देखता रहा कि यह भी जीवन का एक रास्ता है जिसे नूरी इस प्रकार काट रही है।

संसार का क्या विधान है। वह उलझ गया सोचने में। यह नूरी फिर जब तक बस्ती में नहीं चली गई, उसने अपने गीतों को नहीं गाया।

दिन बीतते गए, नूरी अपने कार्यक्रम को करती गई। पर अब वह स्वतन्त्रतापूर्वक गा-गाकर नहीं बेचती थी। उसे लगता था जैसे कोई मेरे गीतों को सुनने के लिए छिपा है। उसका संयम दिन पर दिन बढ़ता गया और वह नित्य प्रति अपने में खोती गई। कमल भी अपनी उसी कोठरी में बैठा-बैठा मूँगफली पा जाता। पर देर होते देख उसका हृदय विकल हो उठता था। उसे रात पहाड़-सी लगती थी।

इधर नूरी अपने परबस हृदय की ठोकरों से विचलित हो उठती थी। जैसे उससे कोई कहता था- ‘यह बड़े-बड़े प्रासाद तेरे लिए नहीं नूरी! यह तो रंगीन तितलियों के लिए हैं; तेरा निवास तो वही तृण कुटीर है जिसने तुझे सुखपूर्वक जिलाया है।’

वह चौंक पड़ती और अपनी गाड़ी लेकर चली जाती।

एक दिन जब सन्ध्या के विशाल वक्षस्थल को बस्ती के नन्हे-नन्हे घरों से निकलते हुए धुओं ने अत्यधिक धूमिल कर दिया था, कहीं-कहीं दीपक अपनी क्षीण प्रभा से मुस्कराने लगे थे। इधर नूरी अपनी मूँगफली बेचकर देर हो जाने के कारण शीघ्रता से गाड़ी दौड़ाये चली जा रही थी। उस बंगले के सामने पहुँचकर उसकी गति धीमी पड़ गई। पर वह रुकी नहीं। धीरे-धीरे चलती गई। किसी ने धीरे से पुकारा, “नूरी!”

वह शब्द पहचान गई और बोल उठी, “जी बाबू जी!”

“क्या तुम मुझे समझती हो?” कमल ने सम्भलकर कहा।

“अच्छी तरह, बाबू जी और मैं आपको बहुत प्यार करती हूँ, पर बाबू जी! मैं एक मुसलमान की लड़की हूँ।” नूरी न जाने कैसे यह एक साँस में कह गई।

कमल का हृदय उमड़ पड़ा। उसने कहा, “नूरी! धर्म हमारे प्रेम की सीमा नहीं है, हमारे हृदय का कटघरा नहीं है, वह तो स्वयं इसी हृदय से पैदा होता है। फिर मैं अपने घर का मालिक हूँ, तू इसके लिए न डर।”

नूरी ने अपनी सारी शक्ति बटोरते हुए कहा, “बाबू जी! मैं एक मजदूरिन की लड़की हूँ और आप धनी हैं। कितनी विषमता, कितना द्रोह है। बाबू जी, आप लोग सौन्दर्य के उपासक हैं और सौन्दर्य सदा सत्य नहीं है। वह तो समय के साथ घटता-बढ़ता रहता है और इसीलिए रूप के उपासकों का प्यार भी सौन्दर्य की धरती के साथ घटता जाता है। देखिए बाबू जी! वह काले-काले भौंरे फूलों से केवल पराग के लिए प्यार करते हैं और उसके प्राप्त होते ही उसका साथ छोड़कर उड़ जाते हैं।”

कमल नूरी की भावपूर्ण वाणी में उलझ गया। उसे लग रहा था जैसे नूरी अनुपम सौन्दर्य के साथ-साथ अपार अनुभूतियों से परिपूर्ण है। वह कुछ कहने ही जा रहा था कि नूरी ने कहा, “देर हो रही है, मैं जा रही हूँ बाबू जी!” और वह बिना उत्तर पाये ही अपनी गाड़ी को ठेलती बढ़ गई और दूसरे ही क्षण अन्धकार की काली दीवारों द्वारा कमल से अलग कर दी गई। कमल खड़ा खड़ा अन्तरिक्ष से आते हुए खड़ खड़… शब्द को सुनता रहा और सोचता रहा कि नूरी कितनी दृढ़ है, कितनी विचारशील है।

सारा बंगाल पैशाचिक नरसंहार का केन्द्र बन गया था। चारों ओर हिन्दू-मुसलमान की भावना विषैली सर्पिणी की भाँति लोगों को डस रही थी। मासूम बच्चे माताओं के आगे ही जला डाले जाते थे। माताओं के स्तन काट लिये जाते थे, कन्याओं के साथ बलात्कार किया जाता था। चारों ओर घर-घर में, हृदय-हृदय में साम्प्रदायिकता का विषम ज्वर फैल गया था। पर यह बस्ती अब भी अपने आन्तरिक प्रदेश में वैसी ही थी। यद्यपि बाह्य रूप में भीषण समाचारों द्वारा अन्तर अवश्य था। लोगों ने आना-जाना बन्द कर दिया था। नूरी भी बन्दी की भाँति अपने तृण कुटीर में पड़ी सोचा करती, यही है सम्पत्तिवालों का खिलवाड़ जो हमारी पवित्र बंगभूमि को नीच साम्प्रदायिकता की प्रचण्ड अग्नि में झोंक रहा है। वह अपने को भूल-सी जाती और कह उठती “कमल! तुम भी तो धनिक हो, क्या तुम भी ऐसा करते होगे? शायद तुम इस जीवन पर तरस खाते होगे पर देखो! आँखें खोलकर देखो! कितना मधुर है यह, क्योंकि इसी दरिद्रता के कारण देश में फैले हुए बहुत-से ग़रीबों का साथ हो पाता है। उनके दुःखों को मनुष्य समझ पाता है। इसीलिए मैं कहती हूँ, रहने दो मुझे, मैं यहीं रहूँगी। मुझे यहीं जीवन मिलेगा। मैं कर्मों के बीच, संघर्षों के बीच जी लूँगी। मुझे क्षमा करो, बाबू जी।” और यही सोचते-सोचते वह उसी कुटीर के तिनकों में अपनी दृष्टि बिखेर देती।

वह यह सब सोच ही रही थी कि माँ ने बाहर से पुकारा, “नूरी!”

नूरी उठकर दौड़ी गई, “जी अम्मा!” कहकर, उसने जब देखा तो जैसे माँ किसी सम्भावित विपत्ति के अनुमान से खिन्न हो उठी है और मरियम उसके कन्धे पर हाथ रखे खड़ी है।

माँ बोली, “तुमने नहीं सुना बेटी?”

“नहीं माँ!” नूरी ने उत्तर दिया।

“हमारी बस्ती में भीषण रक्तपात की तैयारी हो रही है। चारों ओर से लोग इसे जला डालने के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। मैं अभी गिरती-पड़ती चली आ रही हूँ। पूछती नहीं मरियम से, लोग बस्ती को एक ओर से घेर रहे हैं।”

“क्यों अम्मा!”

“यह तो मैं नहीं जानती बेटी!”

मरियम ने मुँह लटकाते हुए कहा, “तुम्हारे बाबू जी भी तो गुण्डों के एक दल को ललकार रहे थे।”

“कौन बाबू जी, मरियम?” नूरी ने विस्फारित नेत्रों से काँपते हुए कहा।

“बहन! वही बाबू जी!” कहकर मरियम भय से रोने लगी। नूरी काँप उठी और सर पर हाथ रखकर बैठ गई। माँ जैसे इन बातों को सुन ही रही थी। वह सोचती जा रही थी।, इतने में ‘मार डालो, जला दो’ के साथ रोने-चीख़ने के घोर स्वर से बस्ती गूँज उठी। माँ ने घबराकर कहा, “नूरी! ओ नूरी! अब क्या हो बेटी?”

नूरी हताश हो गई थी। उसने लम्बी साँस लेकर कहा, “क्या होगा माँ, चलो यहाँ से।”

और जैसे ही दोनों घर से बाहर निकलीं, गली में अपार भीड़ चीख़ती-चिल्लाती प्राण-रक्षा के लिए भागती जा रही थी। वे भी उसी में शामिल हो गईं। कोई गिरता था तो उसके ऊपर से हज़ारों आदमी दौड़ रहे थे और गुण्डे अपने पैशाचिक कृत्यों द्वारा अपने हाथों को निरीह जनता के रक्त से रंग रहे थे और धर्म के मुँह पर कालिख पोत रहे थे। गली लाशों से पट गई। सारी बस्ती धू-धू करके जल रही थी, जैसे धर्म की होली जल रही थी – मानवता की अर्थी जल रही थी।

अम्मा और मरियम का कहीं भी पता नहीं था। वे कहीं दबकर समाप्त हो गई थीं। पर नूरी अब भी कुछ लोगों के साथ दौड़ती जा रही थी। इतने में एक भीड़ ने उसे घेर लिया। लाठियाँ चलने लगीं। किसी ने बढ़कर एक लाठी नूरी के सर पर मार ही तो दी और नूरी मत्थे पर हाथ रखती हुई गिर पड़ी। तेज़ रक्त की धार से उसका शरीर लथपथ हो गया। किसी ने पीछे से ललकारा, “ख़ूब किया, सलवार पहने थी।” और बढ़कर देखा तो अपनी सारी चेतनाओं को फैलाकर चित्त लेट गई है। वही फटी सलवार और फ़्रॉक! कमल पहचान गया और उसके सर को अपनी गोद में लेकर बैठ गया।

“नूरी! ओ नूरी!”, वह व्यथित होकर कह उठा, “मुझे क्षमा कर दो नूरी! आँखें खोलो।” पर नूरी बेहोश ही रही।

बहुत-से लोग इस नये नाटक को देखने के लिए एकत्र हो गये थे। नूरी ने एकाएक नेत्र खोले। अपने को इस दशा में देखकर वह चौंक उठी। ऊपर देखा तो बाबू जी उसके सर को गोद में लिए आँसू बहा रहे हैं। आज उसके हृदय से सहानुभूति का पंछी पर फैलाकर उड़ चुका था। वह जैसे कमल की गोद में सर खींच लेना चाहती थी।

कमल ने कहा, “नूरी! मेरी नूरी! मुझे…”

“कुछ नहीं, बाबू जी। वह धर्म की परिभाषा याद करिए, चले जाइए – हट जाइए – मुझे मरने दीजिए, इसमें बाधक न बनिए।” कहकर नूरी ने अपने नेत्र बन्द कर दिए।

कमल पश्चात्ताप की अग्नि में जल रहा था। उसने कहा, “नूरी! तू क्या कह रही है?”

“ठीक कह रही हूँ। देखिए! वह ग़रीबों की बस्ती, वह निरीहों की बस्ती जल रही है, निरपराध – अकारण। मेरी खिल्ली न उड़ाइए। बाबू जी देखिए… नूरी… तो उसी बस्ती… में… तड़फड़ा रही है। उस बस्ती… में मर… रही… है। यह तो… मोह है… आसक्ति… है।”

वह बड़बड़ाती गई, “क्षमा करो… बाबू… जी! इसे… न जलाओ। यहाँ… धर्म का… वही रूप… है, जो… आपने… एक दिन… कहा था। देखो… तुम्हारी… नूरी तुमसे प्रार्थना कर… रही है। यह ग़रीबों की… बस्ती आबाद होते… हुए भी… बर्बाद है… इसे न उजाड़ो…।” और वह अवसन्न हो गई, मूक हो गई।

कमल ने देखा, नूरी अब उसकी नूरी नहीं रह गई है। वह ग़रीबों की बस्ती में उन्मत्त-सा, पागल-सा बकता हुआ, उसी जलती विभीषिका की ओर दौड़ पड़ा।

कुछ दिनों बाद सुना गया कि वहीं, ग़रीबों की बस्ती के उजड़े खण्डहरों में एक पागल नवयुवक घूम-घूमकर कुछ ढूँढता रहता है। नूरी! नूरी!… पुकारकर अपनी प्रतिध्वनि को पकड़ने के लिए दौड़ा करता है।

मार्कण्डेय
मार्कण्डेय (2 मई 1930 - 18 मार्च 2010) हिन्दी के जाने-माने कहानीकार थे। वे 'नयी कहानी' के दौर के प्रमुख हस्ताक्षर थे। वे 'नयी कहानी' के सिद्धान्तकारों में से एक थे। अपने लेखन में वे सदैव आधुनिक और प्रगतिशील मूल्यों के हामीदार रहे।