इधर दो दिन लगातार तुमसे मिलने के बाद
लगा
कि हमारे अचानक-बँधे सम्बन्धों में
मीठी नरम घास उगने लगी है।
यह लगने लगा
कि
इसकी ठण्डी हरियाली ही थी
वह—
जिसके लिए बरसों से
आँखें धुँधली थीं
जल रही थीं।
और यह भी
कि
ज़्यादा पास आने से टूट जाने वाला प्यार
बिना पास आए पनपता नहीं।
मैं तुम्हारे नज़दीक आऊँ?
या
दूर हट जाऊँ?
मैं ख़तरा उठा लूँ?
या घुटने टिका दूँ?
तुम्हारी आँखों के पिघल जाने की उम्मीद में
रुकूँ
या पहले ही डरकर मान लूँ—
तुम्हारी आँखें
नहीं हैं मेरा घोंसला—
और उड़ जाऊँ?
मैं क्या करूँ?
हमारे अकस्मात्-बँधे
ऊसर सम्बन्धों में
मिठास आने लगी है।
इन्दु जैन की कविता 'मैं तुम्हारी ख़ुशबू में पगे'