अपने सम्बन्ध में कुछ लिखने की बात मन में आते ही मन के पर्दे पर एक ही छवि ‘फेड इन’ हो जाया करती है : एक महान महीरुह… एक विशाल वटवृक्ष… ऋषि तुल्य, विराट वनस्पति! फिर, इस छवि के ऊपर ‘सुपर इम्पोज़’ होती है दूसरी तस्वीर : जटाजूटधारी बाबूजी की गोद में किलकता एक नन्हा शिशु!! और तब अपने बारे में कुछ लिखने की बात मन से दूर हो जाती है। क्योंकि इस वृक्ष को बाद देकर अपनी कहानी लिख पाना मेरे लिए असम्भव है।

अतः जब लिखने बैठा हूँ, शुरू में ही क़बूल कर लेना ठीक है कि मैं कुसंस्कारों में पला अंधविश्वासी हूँ। जन्मांधविश्वासी? इसके अलावा क्या हो सकता था मैं? मेरे गाँव के लोग, परिवार के लोग एक पेड़ को पूजते थे। गाँव का प्रत्येक बच्चा उस ‘पेड़-देवता’ की कृपा से जीता था, उसके कोप से मरता था। …छह महीने की मेरी काया को (सुना है!) अमावस्या की एक रात—उस पेड़ के नीचे धरती पर सुलाकर मेरी दादी ने ‘दण्ड-प्रणाम’ करके मनौती मानी थी— ‘ले जाना है, तो अभी ही ले जाओ। रखना है तो ‘राज़ी-ख़ुशी’ से रखो!’

इतने दिनों तक ‘राज़ी-ख़ुशी’ रहने के बाद, अपने मुँह अपनी-यात्रा की कहानी कहने के पहले अपने ‘बट बाबा’ का ‘सुमिरन’ करता हूँ…।

गाँव के उत्तर, सड़क के किनारे पल्लवित घनश्याम शाखाओं को आकाश में छत्राकार ताने, जटाजूट लटकाए उस ‘योगी-वृक्ष’ का सबसे पहले नमस्कार! सारे गाँव के लोग, गाँव से बाहर जाते और लौटते समय कोई नया काम शुरू करने के पहले इन पेड़ को शीश नवाकर दण्डवत करना नहीं भूलते थे। ‘बट बाबा’ को हमने पेड़ नहीं समझा— ‘देव’ ही समझा सदा। ठीक उसी तरह मलेरिया को सिर्फ़ बुख़ार नहीं— ‘पिशाच’ मानता रहा। जूड़ी-ताप-तिल्ली की एक मशहूर पेटेंट दवा के विज्ञापन में ‘मलेरिया पिशाच’ की तस्वीर छपी रहती थी—पाँच मुँहवाला, विकराल पिशाच—अट्टहास करता हुआ, चारों ओर अस्थिपंजर, मुण्ड और हड्डियों के ढेर बिखरे हुए।

तीस-चालीस साल पहले तक अपने इलाक़े में फैले मलेरिया और काला आजार के भीषण प्रकोपों को याद करके आज भी देह काँपने लग जाती है। कभी-कभी तो स्मरण-मात्र से ही शीत ज्वर चढ़ जाता है, जो कम-से-कम ढाई दिनों तक देह की हड्डियों के जोड़ को निर्ममता से तोड़-मरोड़-झकझोरकर ही विदा लेता है। उन दिनों, कहते हैं, हमारे यहाँ के कौओं को भी मलेरिया बुख़ार होता था।

कौओं की नहीं, अपनी बात कहता हूँ। मलेरिया की मुझ पर विशेष कृपा थी। हर साल, हर क़िस्म के ज्वार-ताप में यह काया तपती थी। मलेरिया के क़िस्म? जाड़ा देकर आनेवाला—जड़ैया। एक दिन बाद देकर आनेवाला—एकैया। दो दिन बाद देकर चढ़ने वाला—तीहिया। और ‘तुरत-फुरत’ प्राण-पखेरू को झपट्टा मारकर उड़ जानेवाला—बाई-जड़ैया। अर्थात्, ‘पर्निसस-मलेरिया’ बुख़ार के साथ पेट चलना शुरू होता है। हैजा के सारे लक्षण प्रकट होते और एक-दो घंटे में पहलवान-पट्ठा आदमी चल बसता। …ऊँ सर्वविघ्नान्-उत्सारह हूँ-फट् स्वाहा!!

हर साल, आसिन-कातिक में गाँवों में मलेरिया महामारी का रूप धारण करता। कभी-कभी तो अगहन में ‘धनकट्टी’ के समय मज़दूरों के अभाव में बड़े किसानों के धान खेतों में ही झर जाते थे। …माघ की सर्दी से उबरकर, फागुन की हवा पीकर तनिक स्वस्थ शरीर लेकर जब हम पाठशाला पहुँचते तब मालूम होता कि हमारे बहुत-से प्यारे सहपाठी मलेरिया के गाल में समा गए। हर वर्ष आसिन-कातिक अर्थात दुर्गापूजा के पहले ही सारे गाँव में एक आतंक छा जाया करता—पता नहीं, इस बार किस-किसकी बारी है। …पता नहीं इस बार क्या हो। …इस बार कातिक सकुशल कटे, मन-ही-मन यही कामना करते सभी। और मेरा अनुमान है कि मन-ही-मन मनौती मानते समय सभी के हाथ स्वयं ही जुड़ जाते होंगे, सिर झुक जाते होंगे और मुहँ से एक कातर-स्फुट गुहार— ‘दुहाई बट बाबा! रच्छा करना साईँ!’

मन-पसंद मनौती (या उत्कोच?) और ‘चढ़ौआ’ के लोभ में अथवा अपने औघड़पन में—बाबा ‘रच्छा’ किया करते थे। …सन 1929-30 ई. की बात। लगातार तीन महीने तक कुनैन की गोलियाँ निगलने और ‘डी. गुप्ता’ तथा ‘एड्वर्ड टॉनिक’ जैसी ज़हरीली, पेटेंट, दवाओं का कड़वा घूँट पीने के बाद, कुनैन की सुई दी जाने लगी। किंतु ठीक समय पर—मानो, घड़ी देखकर रोज़ आनेवाला ज्वर कभी नहीं रुकता। आ ही जाता। और, जब आता तो 105 डिग्री से भी ऊपर की ओर—उसके साथ प्रलाप…।

तब मेरी दादी ने एक बार फिर ढाई दिनों का निर्जला-उपवास किया। दवा और सुई बंद कर दी गई। बट बाबा के ‘शरणागत’ की तैयारी होने लगी। दादी जब ‘दण्ड प्रणाम’ करके बट बाबा को मनौती मानकर मेरे पास आयी, मैं ज्वर की ज्वाला में झुलस रहा था। सिर से बर्फ़ की थैली को सरकाकर, पान-फूल मेरे माथे से छुआकर दादी बैठ गई। दादी की हथेली के स्पर्श की याद मुझे है… चोआ-चंदन की भीनी गंध और शीतल-कंचन हथेली!

इसके बाद, एक स्वप्न। मैंने देखा, बरगद की हर डाली नवपल्लवों से ढक गई है। ललछौंह-कोंपल, कोमल-चिकने नए ‘पात’ बरगद के—हवा में काँपते-नाचते। …धीरे-धीरे नवपल्लव झरने लगे। पत्तों के गिरने के मृदु शब्द और उनके ‘परस’ की याद मुझे अब भी है। झरते हुए नए पत्तों से मेरी देह ढक गई। सिर, मुँह, छाती, पेट, दोनों पैर, तलुवे और दोनों हाथ की हथेलियाँ नवपल्लवपुंज से आवृत। तन का ताप क्रमशः कम होने का सुख? इन पंक्तियों को लिखते समय मेरे रोम रह-रहकर पुलकित हो उठते हैं। मेरी सारी देह में आनंद की एक अपूर्व गुदगुदी-सी लग रही थी। मैंने कहा था, “दादी! पत्तों को अब परे हटा दो। ठण्ड लग रही है।”

सिरहाने में बैठी दादी बोली थी, “कैसे पत्ते? कहाँ हैं पत्ते बेटा?”

“बट बाबा के पत्ते। मेरी देह बरगद की कोमल पत्तियों से ढकी हुई है न?”

मैंने आँख खोलकर देखा—दादी का प्रसन्न मुखमण्डल और आँगन के उत्तर आकाश में बरगद की फुनगी पर बैठी हरबोला-चिरैया का स्वर— ‘शिव-शिव कहो।’

इसके बाद फिर कभी मलेरिया से आक्रांत हुआ, याद नहीं।

गाँव से उत्तर, सड़क के किनारे, विशाल तरुवर के तले राही-बटोही और ‘बनिजारे’ गाड़ीवानों के दल सदा सुस्ताते। कभी विवाह और गौना की बरात गुज़रती। दुलहिन की पालकी बरगद के नीचे रुकती। सारा गाँव उमड़ पड़ता। लाल-लाल डोली से ‘लाली-लाली दुलहिनियाँ’ निकलकर, धरती पर माथा टेक-कर दण्डवत करती। पालकी जब उठने लगती, गाँव के बच्चे तालियाँ बजाकर एक स्वर से गाने लगते— ‘लाली-लाली डोलिया में लाली रे दुलहिनियाँ…।’

नन्हीं दुलहिन कुछ वर्षों के बाद में एक नवजात ‘लड़िकनवाँ’ लेकर लौटती। तब, एक बार फिर बट बाबा के पास टप्परवाली गाड़ी रुकती। छाती से अपने कलेजे के टुकड़े को सटाए, नई-नई हुई अल्हड़-सी माँ गाड़ी से उतरती— ‘दुहाय बट बाबा!’ बरगद पर बैठी ‘खोंपावाली-चिड़िया’ किलक उठती— ‘चुम्मा दे दे… !’

चिड़ियों की नाना जाति, रंग, वर्ण के परिचय और उनके नाम, स्वभाव, आने-जाने का मौसम, उनकी बोलियों के मतलब—दादी ही मुझे सुनाती-समझाती। कहना नहीं होगा कि बरगद की डालियों पर सदा दुनिया-भर की चिड़ियों का कलकूजन होता रहता। किंतु कभी गिद्ध या बगुले को बैठते किसी ने नहीं देखा, न सुना कभी। कभी-कभी कोटरों में विषधर सर्प दिखलायी पड़ते। दादी कहती— “देवहा पेड़ पर साँप तो रहेगा ही।‌‌ …गिद्ध या बगुला देवहा पेड़ पर नहीं बैठता।”

याद आती है नवान्न के दिन की!

नया चूड़ा और दही, नया गुड़ का अनुच्छिष्ट-प्रसाद केले के पत्ते में लेकर घर-घर की गृहिणियाँ पेड़ के पास आतीं, और नवान्न के दिन सूर्योदय के पहले से ही, न जाने कहाँ से उतने काग जमा हो जाते थे! कहते हैं, सभी काग नदी, पोखरे या जलाशय में नहाकर प्रसाद पाने के लिए जुटते थे। बरगद की फुनगी पर—पात-पात पर बैठे हज़ारों-हज़ारों, काग-कलरव करते हुए। केले के पत्ते में प्रसाद लेकर गृहिणी पुकारती— ‘आ! आ-आ-आ!!’

प्रत्युत्तर में सैकड़ों काग एक स्वर में— ‘का! का-आ-आ-आ’—कहकर पंख फड़फड़ाते, उड़ते, ज़मीन पर बैठते और प्रसाद पाते, फिर उड़ते। बच्चे पुकारते— ‘खा ! खा-आ-आ-आ-आ!’

दिन के तीसरे पहर तक बरगद के नीचे ‘कागभोजन’ का आयोजन चलता रहता— ‘आ! आ-आ-आ!! …का! का-आ-आ-आ!! …खा! खा-आ-आ-आ-आ!!’

दिन-भर बोलने-कूकनेवाली चिड़ियों की टोलियाँ सूर्यास्त के बाद कुछ क्षणों तक अंतिम कलरव-कूजन करके चुप हो जातीं—सो जातीं। इसके बाद शुरू होता निशिचर पंछियों का ‘शिफ़्ट’ — ‘रतजगा’ करनेवाली चिड़ियों की बारी रात के आठ बजे के बाद से…।

करकरा या कर्रा नामक काली और लम्बी टाँगवाली मौसमी चिड़ियों की टोली जिस पेड़ पर बैठती है, रात में उस पेड़ के नीचे से बिल्ली भी गुज़रे, तो करकरा की टोली एक साथ कर्कश सुर में किलकिलाने लगती है— ‘कर्र-कर्र-काँ-हाँ-स। कर्र-कर्र…।’

हर तीन घंटे पर अचानक एक मनहूस आवाज़ वातावरण में सिहरन की सुष्टि करती— ‘घुघ्घू-घू-ऊ-ऊ’—बड़ा उल्लू, अर्थात घुघ्घू—सदा मँडरानेवाली मौत की पगध्वनि को सबसे पहले घुघ्घू ही सुनता है और तब यह पेड़ की डालियों पर बोलने लगता है। इसकी बोली सुनकर जगे हुए लोग अपने इष्टदेव का नाम सुमरते हैं। यह पंछी ‘टाइम कीपर’ का भी काम करता है। रात के प्रत्येक पहर में यह नियमपूर्वक बोल उठता है। बरगद पर रहनेवाले घुघ्घुओं में एक ‘पेंचक’ ऐसा है, जो रात में अनैतिक काम करनेवालों को कड़ी सज़ा देता है। …एक बार एक ठग ‘ओझा’ (तांत्रिक) गाँव से बाहर ‘चौबटिया’ पर ‘चक्र’ पूजकर एक कुमारी कन्या पर बलात्कार करना चाहता था। उस पेंचक ने तांत्रिक के गाल का माँस नोच लिया था। और एक बार एक कटहल चुरानेवाले के ब्रह्मतालु पर चोंच मारकर गहरा छेद कर दिया था। दोनों की मृत्यु तत्काल ही हो गई थी।

पेंचकों (उल्लू, घुघ्घू तथा मुआ) के अलावा बरगद पर ‘दुदुमा’ नामक पखेरू का जोड़ा भी रहता था। ‘दुदुमा’ को कभी किसी ने देखा नहीं। मेरी दादी ने भी नहीं। दादी कहती— “सुना है इसके दो दुम होती हैं और दस कोस में सिर्फ़ एक ही जोड़ा रहता है कहीं।”

रात गहरी होने के बाद अक्सर नर और मादा का सवाल-जवाब सुनायी पड़ता। नर की आवाज़ कुछ इस तेवर के साथ कि वह नींद में सोयी हुई मादा को जगा रहा हो— ‘एँ-हें-एँ?’ …अर्थात— ‘जगी हो?’

जवाब में एक कुनमुनाई-सी नींद से आती हुई आवाज़— ‘एह। ऐंहें-ऐंहें-ऐंहें’—अर्थात ‘ओह! जगी ही तो हूँ। क्यों बेकार…’ और तब, नर दुदुमा एक बार फिर बोलता— ‘ऐंहें-ऐं-ऐं!’ अर्थात, ‘हाँ, जगी रहो।’

एक चिड़िया होती है—कूँखनी। इसकी बोली, गोद के बच्चों के लिए, अशुभ और अमंलकारी समझी जाती है। कूँखनी की बोली कराहते हुए रोगी शिशु की आवाज़ जैसी सुनायी पड़ती है। इसकी बोली को सुनते ही संतानवती माताएँ अपने शिशुओं को छातियों से चिपका लेती हैं और तब कूँखनी चिरैया को एक अश्लील गाली देकर उसकी बोली के ‘दोख’ को काटती हैं ‘चुप छिनाल! यहाँ कहाँ… आयी है? कहीं और जाके…’

निशिचर पंछियों के अलावा रात में बरगद की डालियों से एक साथ कई खड़खड़ाती हुई आवाज़ें आतीं—उड़नबेंगों की। पेड़ पर रहनेवाले—कलमेघों की। …यहाँ लोग मुझे ‘गप्पी’ (झूठी बात हाँकनेवाला) कह बैठेंगे, मैं जानता हूँ। हमारे गाँव में एक कहावत है— ‘लुच्चा मारलक बेंग, दू पसेरी के एक्के टाँग।’ सो, कहनेवाले मुझे लुच्चा कह लें। किंतु पेड़ की डालियों से चिपके इन हरे रंग के मेंढकों को मैंने (रात में) देखा है। इन्हें बोलते सुना है। इनके पैर, पानी में और मिट्टी पर रहनेवाले मेंढकों से तनिक भिन्न, लम्बे होते हैं, उँगलियाँ झिल्लीदार। एक डाल से दूसरी डाल पर कूदकर चिपक जानेवाले इसे ‘उड़नबेग’ भी कहते हैं। इसकी बोली फटे हुए बाँस की ‘फराठी’ की तरहा सुनायी पड़ती है— ‘पडर्र-र्र-! पडर्र-र्र-र्र!’

इन प्राणियों के अलावा कभी-कभी एक शब्द सुनायी पड़ता है—एक लम्बी साँस की तरह। यह आवाज़ बरगद की यानी ‘बट बाबा’ के साँस लेने की आवाज़ होती।

दस वर्ष की उम्र से ही मुझे रात में देर तक जागने का रोग है। रात के दो-ढाई बजे तक नींद नहीं आती। दवा-दारू, झाड़-फूँक और टोटका-टोना करके भी कोई लाभ नहीं हुआ। बिछावन पर बिना नींद के चुपचाप लेटे रहना कभी इतना बुरा लगता कि मैं रो पड़ता। दादी पीठ पर हाथ फेरती हुई कहती— “आँख मूँदकर फूले हुए कास के गुच्छों को देखो। नींद आ जाएगी।” कई बार अफ़ीम घोलकर चटाया गया। किंतु नींद तीन बजे के बाद ही आती।

अंत में, जब तक नींद नहीं आती, लेटे-लेटे बरगद की डालियों से लटकती हुई जटाओं के झूले पर—मन को बैठाकर झुलाता। गुनगुनाता— ‘झूला लगे कदम की डाली, झूले किसुन कन्हाई जी…!’

इन्हीं दिनों बरगद से मेरी आत्मीयता घनिष्ठ हुई। सारा गाँव सोया रहता। परिवार का हर प्राणी नींद में खोया रहता। अकेला जगा हुआ मैं—खिड़की से बाहर बरगद की फुनगी की ओर ताकता रहता। लाखों जुगनुओं से जगमग करती हुई छत्राकार डालियाँ। कभी घुघ्घुओं की मनहूस बोली सुनकर डर जाता तो लगता, कोई ठठाकर हँस पड़ता है— ‘अरे! चिरई-चुरमुन की बोली सुनकर भी डरता है रे?’

एक बार बरगद की ऐसी ही चुनौती-भरी हँसी को सुनकर बिछावन छोड़कर उठा और अंधकार में चुपचाप बरगद की ओर जानेवाली पगडंडी पकड़ ली। बरगद के नीचे पहुँचकर—ज़ोर-ज़ोर से पाँव पटक-पटककर परिक्रमा करते हुए कहने लगा— “मैं नहीं डरता। मैं किसी से नहीं डरता। मैं डरपोक नहीं। कायर नहीं हूँ मैं…।”

दूसरे दिन सुबह, शहर से एक नामी होमियोपैथ को बुलाया गया। उन्होंने कहा— “नींद में चलना-फिरना, यह रोग है।” किंतु उनकी दवा से रोग दूर नहीं हुआ।

पिताजी ‘सत्यार्थप्रकाश’ पढ़कर, आर्यसमाजी प्रचारकों के उत्तेजक भाषण सुनकर ‘दयानंदी’ हो गए। घर के ‘देवगण’ भागकर बरगद पर चले गए। अकेले दादी कहाँ तक उन्हें भरोसा देकर घर में रख सकती थी भला? घर का बच्चा-बच्चा ‘दयानंदी’ बोली और ‘अरियासमाजी’ कीर्तन सीख चुका था।

एक बार पिताजी के साथ एक प्रचारक भी आए। गाँवों में ढोल बजाकर ख़बर फैला दी गई— “आज शाम से बरगद के तले ‘अरियासमाजी कीर्तन’ होगा…।”

प्रचारकजी के कीर्तन से पहले ‘हवन’ करके, सड़े हुए सनातनी वातावरण के ‘शुद्धि संस्कार’ का पवित्र आयोजन किया गया। हवन की आग सुलगते ही गौरैया का एक बच्चा पंख फड़फड़ाता हुआ उड़ा और सीधे हवनकुंड में जा गिरा। …यज्ञ भ्रष्ट हो गया। कीर्तन नहीं हो सका।

प्रचारकजी तथा पिताजी स्तब्ध रह गए। उन्होंने ‘संयोग’ कहकर इस घटना को भुलाने की चेष्टा की। किंतु दादी का विश्वास दृढ़ था कि ‘बट बाबा’ की इस चेतावनी के बाद भी यदि यहाँ ‘अरियासमाजी’ कीर्तन किया गया, तो फिर शुरू होगी बाबा की ‘कोप-लीला’…!

दादी ने मुझे अपने पक्ष में करने के लिए, धीरे से मुझे समझाया था— “बेटा! और देवी-देवता की बात नहीं करती। लेकिन, यह ‘बट बाबा’ साक्षात् देवता हैं—जाग्रत देवता। इनसे कभी रार मत करना। इन पर कभी ‘ना-परतीत’ मत करना। इनसे कभी मसखरी मत करना…। तुम्हारे पितामह के पितामह से भी बड़े हैं तुम्हारे बट बाबा।”

साढ़े तीन साल की नज़रबंदी के बाद (सन 1945 ई. में) भागलपुर सेंट्रल जेल से रिहा होकर गाँव में रहा। सिमराहा स्टेशन से घर आते समय रह-रहकर लगता कि न जाने किस गाँवों में जा रहा हूँ, पता नहीं, कहाँ जा रहा हूँ। कहाँ है अपना गाँव? किधर गया अपना गाँव ‘औराही-हिंगना’? दिग्भ्रांत होकर किसी अन्य दिशा की पगडंडी तो नहीं पकड़ ली? …पछियारी टोले का अकेला ताड़ का पेड़? हाँ, है ताड़ का पेड़। लेकिन, गाँव का आकाश कहाँ है? …आकाश …स्काइलाइन …अपने गाँव का क्या हुआ?

अचानक कलेजा धक! बट बाबा कहाँ हैं? गाँव के उत्तर, सड़क के किनारे विशाल वट-वृक्ष नहीं है। और वट-वृक्ष के बिना सारा गाँव नंग-धड़ंग… श्रीहीन छूँछा… अजनबी-सा लग रहा था। अपने गाँव की ऐसी कुरूप छवि की झाँकी पहली बार देखकर मेरे पैर डगमगाए थे और खेत की मेंड़ से नीचे फिसल गए थे।

गाँव पहुँचकर विस्तारपूर्वक बट बाबा के तिरोधान की कहानियाँ सुनता रहा। …पिछले साल एक रात के दूसरे पहर में बिना किसी आँधी-तूफ़ान अथवा ‘हवा बतास’ के ही बट बाबा जड़ से उखड़कर भूलुंठित हो गए! …गगनभेदी धमाका …हल्का भूकम्प, और फिर आर्तनाद, कोलाहल, कलरव! सारा गाँव जग पड़ा और सभी एक सुर में रो पड़े—औरत-मर्द, बच्चे-बूढ़े-जवान; कुत्ते, गाय, बैल, भैंस—सभी रात-भर रोते रहे थे—दुहाय बाबा! अब हमारा क्या होगा? कौन हमारी रच्छा करेगा… सुख-दुख में, सदा कौन पास में खड़ा होगा अब? …दादा-परदादा से भी बड़ा, गाँव के हर परिवार का पूज्य, प्रत्येक प्राणी का अपना ‘समांग’—बट बाबा!

दादी की आँखें सदा गीली रहने लगी थीं। बोली, “वैसी हालत में भी जान नहीं गई थी। …जीवन-शक्ति शेष थी। जड़ से उखड़ने के बावजूद, पत्ते-पत्ते पर हरियाली छायी रही। उसी अवस्था में, अर्थात् भूलुंठित होकर भी, पतझड़ के बाद, नवपल्लव से डालियाँ ढक गई थीं। किंतु इसी को कहते हैं दुनिया! …लड़ाई के कारण फैली हुई महँगाई के ज़माने में ‘जलावन’ की लकड़ी भी महँगी हो गई थी। बट और पीपल की लकड़ी को ‘जलावन’ में व्यवहार करने की कल्पना भी किसी ने नहीं की होगी। लेकिन लड़ाई का एक ठेकेदार आया और ज़मींदार को मुँहमाँगी क़ीमत देकर बट बाबा की ‘काया’ को ख़रीद लिया। सरकारी ठेकेदार बिजली से चलने वाला ‘आरा’ और लकड़ी काटनेवाली मशीन लेकर आया और दो-तीन दिनों में ही बट बाबा का नाम-निशान निश्चिह्न!”

दादी का गला भर आया था, “अब तो उत्तर की ओर से आनेवाली हल्की आँधी के हल्के-से झोंके को भी गाँव के झोंपड़े नहीं सम्भाल सकते। हर बार बैसाख में गाँव के दर्ज़नों झोंपड़े उड़ जाते हैं।”

“और, उन पंछियों-पखेरुओं और चिड़ियों-चुरमुनियों का क्या हुआ?” मैंने सदा की भाँति दादी से पूछा था।

दादी के चेहरे पर एक उदास हँसी की रेखा देखकर जी जुड़ा गया। हँसकर बोली थी, “तू सब दिन बच्चा ही रह गया रे! बचपन में पूछा करता था कि कोशी की बाढ़ में यदि बरगद डूब जाए, तब चिड़ियाँ सब कहाँ रहेंगी…?”

असल में, मेरे मन के पंछी को कोई ठोर-ठिकाना नहीं मिल रहा था। सूने आकाश में हमेशा उड़ता हुआ-सा दिन-रात भटकता रहता। नींद आती, तो बट बाबा की छाया स्पष्ट हो जाती और उसके बाद सपनों में—बचपन से लेकर किशोरावस्था और जवानी के दिनों तक की स्मृतियों की झलक—आ-आ-आ! …खा-खा-आ-आ! दुहाय बाबा! इस बार कातिक बिना किसी ‘कलेश’ के कट जाए। …खेत …खलिहान सूना न रहे, हर घर की कोठाली में अनाज भरे। …बर-बीमारी-बिपदा-बैरी को नाश करना बाबा। …’जी-जान-देह-समांग’ सब तुम्हारे हाथ…!

कई सप्ताह इसी तरह बिताने के बाद, एक दिन लिखने बैठ गया। लिखने बैठ गया कहना ठीक नहीं होगा। ऐसा लगा कि किसी ने मुझे पकड़कर बैठा दिया। सपना साकार हो गया… आकाश में विशाल बरगद की शाखाएँ तन गईं—जटाएँ हिलने लगीं और डाल-डाल पर असंख्य पंछियों के कलरव-कूजन… प्रशांत मुखमण्डल पर एक प्रसन्न मुस्कान!

तन-मन हल्का हो गया—भारहीन। उस अपूर्व आनंद के प्रथम आस्वाद को भूल नहीं पाया हूँ। अपनी ही लिखी हुई कहानी पढ़कर अचरज में पढ़ गया था—मेरी लिखी कहानी…!

कहानी का शीर्षक ‘बट बाबा’ देकर, चुपचाप साप्ताहिक ‘विश्वमित्र’ (कलकत्ता) के सम्पादक के नाम रजिस्टर्ड पैकेट भेज दिया—सेवा में प्रकाशनार्थ एक कहानी…!

कई सप्ताह के बाद सम्पादकजी का प्रोत्साहनपूर्ण पत्र मिला और साथ ही ‘विश्वमित्र’ का ताज़ा अंक, जिसमें मेरी पहली कहानी ‘बट बाबा’ छपी थी।

दौड़कर दादी के पास गया। चरण-स्पर्श कर बोला, “दादी! तुमने हमें बचपन से ही न जाने कितनी कहानियाँ सुनायी होंगी…। इस बार, मैं तुमको एक कहानी सुनाऊँ!”

कहानी समाप्त करके देखा, दादी की आँखों में एक अलौकिक ज्योति-सी कुछ जगमगा रही थी। उनका झुर्रीदार चेहरा अचानक दमकने लगा था। गद्गद कण्ठ से बोली थी, “बट बाबा की महिमा लिखकर तुमने—समझो कि अपने ‘पुरखों’ को पानी दिया है। …तुमने सारे गाँव के लोगों की ओर से ‘बट बाबा’ की समाधि पर पहला फूल चढ़ाया। बाबा की कृपा बरसती रहे सदा…!!”

आज भी, सुख-दुख के झकोलों पर जब कभी दिशाहारा-सा होने लगता हूँ, अपने गाँव का आकाश अजनबी लगने लगता है, जब कभी अथवा किसी अव्यक्त व्यथा से मन भारी हो जाता है, आँखें मूँदकर गरदन झुका लेता हूँ। मन के आईने में एक तस्वीर स्पष्ट हो जाती है… एक विशाल महीरूह के नीचे खेलता हुआ एक शिशु—नन्हा-सा! …जटाजूट …बाबाजी हँसकर अलख जगाता हुआ—चिमटा खनकता है। स्पष्ट सुनता हूँ, कोई मेरा नाम लेकर प्यार से पुकारता है। पुकारता रहता है…।

फणीश्वरनाथ रेणू की कहानी 'पंचलाइट'

Book by Phanishwarnath Renu:

फणीश्वरनाथ रेणू
फणीश्वर नाथ 'रेणु' (४ मार्च १९२१ औराही हिंगना, फारबिसगंज - ११ अप्रैल १९७७) एक हिन्दी भाषा के साहित्यकार थे। इनके पहले उपन्यास मैला आंचल को बहुत ख्याति मिली थी जिसके लिए उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।