1.

उस दिन स्मरना पर ग्रीक लोगों का कब्ज़ा हो गया था और कमालपाशा टर्की के भाग्य की डोरी अपनी ज़िन्दगी और मौत से बाँधकर टर्की के दुश्मनों से लड़ रहा था। वे दुश्मन तीन थे- निकट व प्रकट सुलतान, दूर का प्रकट ग्रीस और छुपा हुआ टर्की के मुल्की टुकड़ों का हिस्सेदार इंग्लैंड। स्मरना से कमाल की सेना वापिस लौट रही थी और रेगिस्तानी खूंखार लड़ाका कमाल अपनी फ़ौज के लौटने का एक पहाड़ी पर चढ़ा दूरबीन से निरिक्षण कर रहा था। उसी समय कमाल ने देखा कि जान पर खेलकर एक लड़की कुछ खबर लायी और तुर्किस्तान की फौजी गुप्तचर टोली को देने चली आयी।

2.

लोगों ने देखा उस खबर देने वाली सुन्दर लड़की पर टर्की के राष्ट्रपति की मेहर नज़र हुई। पूछताछ शुरू हुई-

“नाम क्या है?”

“लतीफह।”

“उम्र?”

“22 वर्ष।”

“पिता का नाम?”

“अबदुस्समद।”

“निवास?”

“यही फ़ौज के द्वारा आग से जलाया जाता हुआ स्मरना।”

“पिता का रोजगार?”

जहाजी व्यापार।”

सदैव ही मरुस्थल के शांत एकांत को पसंद करने वाले खूंखार शेर ने पूछा-

“कुछ पढ़ी हो?”

“अरैबिक और फ्रेंच।”

“कौन-सा पाठ्यक्रम लिया था?”

“विज्ञान, इंजीनियरिंग।”

“शिक्षा कहाँ पायी?”

“स्मरना में- पेरिस में।”

जबान हिली, भौंह घूमी और कुंवारी लतीफह कमाल अतातुर्क की सेक्रेटरी हो गयी। मगर इस शेर का स्वभाव नहीं बदला। वह युद्ध के नक्शे बनाता, सेना का नियंत्रण करता, देश में उथल पुथल करता, सब रेगिस्तान की बेरुखी और लड़ाके जंतु की बहादुरी के साथ।

पर एकांत के कुछ क्षण ऐसे भी होते, जब उसे अपने साथी की ज़रुरत होती। अधिक गर्मी से चट्टानों में भी कुछ गीलापन आ जाता है, नमी उतर आती है।

एक दिन लोगों ने देखा लतीफह राष्ट्रपति की सेक्रेटरी, राष्ट्रपति की सुहागिन हो गयी, बड़भागिन हो गयी।

3.

दिन बीते, रातें भी बीतीं, पर इस जोड़ी के दिन भी दिन होते और रातें भी दिन होतीं। अपने मौन ही में दोनों बोलते। राजा अपने प्रेम से चुप रहकर बंधे पड़े रहने की मांग करता। वह प्रेम से कहता अनुशासित सिपाही की तरह वर्दी और भोजन में बँधकर उन घड़ियों की प्रतीक्षा कर, जब मुझे फुर्सत मिले, जब खूब एकांत हो और जब मेरा जी राजकाज की उलझनों की लहरों से एक आध दिन ऊब उठे, उस दिन तेरी बारी होगी। उधर प्रेम कहता, विद्यार्थी लतीफह तेरा उद्देश्य सुनकर तेरी पूजा करती थी। गुप्तचर लतीफह तेरे लिए प्राणों पर खेलकर खबरें लाती थी। सेक्रेटरी लतीफह तुझसे भी अधिक संजीदा रहकर अपने मालिक का राजकाज सम्भालती थी। श्रद्धा थी, कर्त्तव्य था, जिम्मेदारी थी, देश भक्ति थी परन्तु विवाह का बंधन न था। प्रेम का वह अवतार न था, जब प्रेम समर्पण भी बना करता है और अपने आराध्य को अपना सबकुछ बनाया भी करता है। केर-बेर के संग की अधिकार सीमा बेर-बेर का संग हो गयी।

4.

कमाल को एकांत, राजकाज, उलझन, मरुस्थल, चिंतन, शासन, उथल पुथल चाहिए था। उसे पता ही न था कि प्रेम को भी एक जगह देनी होती है।

उधर लतीफह शासन में सबकुछ कर सकती थी, यदि प्रेम का अपमान न हो। प्रेम को विश्वास रहे कि वह सूली पर टाँग नहीं दिया गया है।

सिपहसालार अतातुर्क प्रेम की आशा पर मुँह फेरकर देख भी नहीं सकता था। वह देखेगा तो इस मरुस्थल, इस सेना, इस शासन, इस उथल पुथल, इन सूलियों, इन वायुयानों, इन जहाजों, इन खजानों और हाँ तुर्की की स्वतन्त्रता का क्या होगा? उधर लतीफह सोचती- कौन कहता है कि हम दोनों एक हैं? महज़ मौलवियों की वाणी तो प्रेम का पैगाम नहीं हुआ करती। विवाह में पढ़ी आयतों के साथ न तो खेला जा सकता, न वह मना ही कर सकती है, न वह प्रेम का अस्तित्व ही दे सकती है।

5.

आखिर क्या होता? फ्रांस से शिक्षा पाये हुए दोनों विद्यार्थी थे कमाल और लतीफह।

कमाल ने पूछा, “क्या तुम झुकोगी?”

लतीफह ने कहा, “क्या तुम उस झुकाव की कीमत पर खुद झुककर उस झुके हुए पन को अपने हृदय से लगाओगे?”

दोनों मौन!

कमाल ने पूछा- “क्या प्रेम झुकेगा?”

लतीफह ने कहा- “जिसने मातृभूमि के प्रेम को कभी न झुकने दिया, वह प्रेम से झुकने की आशा क्यों करता है?”

फिर दोनों मौन!

फिर भी दिन दिन होते और रातें भी दिन बन जातीं।

एक दिन कमाल ने पूछा, “क्या हम किसी एक विषय पर एकमत हो सकते हैं?”

लतीफह बीच ही में बोली, “राष्ट्रपति, इसका जवाब अपने हृदय से पूछो!”

फिर दोनों मौन! जब मौन घण्टों, दिनों, हफ़्तों, पखवारों और महीनों से भी लम्बा था।

एक दिन फिर उगा। रात हुई, पर वह दिन ही बनी थी। सूरज डूब गया था पर आँखों की पुतलियाँ जाग रही थीं। कमाल ने उपेक्षा से पूछा- “क्या हम किसी विषय पर एकमत हो सकते हैं लतीफह?”

लतीफह ने उत्तर दिया, “हाँ, तुर्की के राष्ट्रपति के हाथों बड़े-से-बड़ा दण्ड पाने की कीमत पर भी हम दोनों एक दूसरे से विदा लेने पर मिल सकते हैं।”

दिन आखिर उगा। लतीफह पुनः कुंवारी लतीफह थी। सुहाग तुर्की के रेगिस्तान के कणों से मिलकर गुम हो गया था और चमक रहा था। और रेगिस्तानी शेर यह जानता ही न था कि उसकी कोई चीज़ गुम गयी। लतीफह एशिया के प्रेम की प्रखरता है, कमाल एशिया की सैनिकता का रागहीन स्वप्न।

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माखनलाल चतुर्वेदी
माखनलाल चतुर्वेदी (४ अप्रैल १८८९-३० जनवरी १९६८) भारत के ख्यातिप्राप्त कवि, लेखक और पत्रकार थे जिनकी रचनाएँ अत्यंत लोकप्रिय हुईं। सरल भाषा और ओजपूर्ण भावनाओं के वे अनूठे हिंदी रचनाकार थे। प्रभा और कर्मवीर जैसे प्रतिष्ठत पत्रों के संपादक के रूप में उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ जोरदार प्रचार किया और नई पीढ़ी का आह्वान किया कि वह गुलामी की जंज़ीरों को तोड़ कर बाहर आए। इसके लिये उन्हें अनेक बार ब्रिटिश साम्राज्य का कोपभाजन बनना पड़ा। वे सच्चे देशप्रमी थे और १९२१-२२ के असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेते हुए जेल भी गए। आपकी कविताओं में देशप्रेम के साथ-साथ प्रकृति और प्रेम का भी चित्रण हुआ है।

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