ऐसा समय जहाँ मनुष्य की आकांक्षाओं के पाँव
बढ़ते ही जा रहे हैं स्वर्ग की ओर
और धँसता जा रहा है उसका शीश पाताल में,
कई ईसामसीह सलीब पर टंगे
मुस्कुराते हैं अपने रक्त-बिन्दुओं में,
जनपथ लाल हैं धरतीपुत्रों के पाँव से बहती नदी से,
कविता की भूमिका क्या है?

कविता जो मुझ तक आती है
आत्मा की लय में उच्छ्वास की माला-सी।
कविता जो स्वर है असाध्य वीणा का
हृत् के हिमगिरि-प्रान्तर से निकल—
निकल पथरीली घाटी की विशाल भुजाओं से
वह मैदानों में फैलती अन्तः-भागीरथी सी।
किन्तु तपते विरोध के क्षणिक उत्साह में खिंचे हाथों में
वीणा के तार टूट रहे हैं,
कि नहीं सध पाता एक अदद महानाद,
महानाद क्या, स्वर का एक हिस्सा तक नहीं।
प्रत्यास्थता की सीमा के पार खींच देने पर
कविताएँ नहीं लौट पाती हैं स्वदेश।

एक की रिक्तता को दूसरी से नहीं भरा जा सकता
क्योंकि जीवन और जगत् में समानार्थी जैसा कुछ भी नहीं होता।
एक ही कविता है जो रची जा रही है
अनगिनत हाथों में
कि परम्परा को महज़ दो-चार या छः हाथ नहीं रोप सकते
वर्तमान की भूमि में,
कविता जो जीवन का संघर्ष भी है और जगत् का सत्य भी।

कविता की आँखों में कोयला नहीं जल सकता,
उससे भट्ठी का काम नहीं लिया जा सकता,
उसकी नाभिनाल के रक्त से नारे नहीं लिखे जा सकते,
वह लाठी या बन्दूक़ नहीं है,
मनोरंजन का सस्ता साधन तो बिल्कुल नहीं।
कविता ने खेतों में अनाज नहीं उगाए,
सीमाओं पर युद्ध नहीं लड़े,
किन्तु उसने साक्षी भाव से अनाज का उगना भी देखा है
और युद्धों के लिए प्रस्थान करती सेनाओं के पदचाप में प्रलयध्वनि भी सुनी है।
पुलों के निर्माण के निर्णय में उसकी कोई स्पष्ट भूमिका नहीं रही
किन्तु उसने गिलहरी की ही तरह
अपनी पीठ और पूँछ-भर रेत
पुलों की देह में पूरी तन्मयता से भरी है—
और इसीलिए समय की तीन रेखाएँ
भूत, वर्तमान और भविष्य की प्रतिनिधि बन उसकी पीठ पर अंकित हैं।

मैं खोज रहा हूँ ऐसी ही कविता प्रिये!
कविता— जो कभी मुझे नवजात-सी नाज़ुक दिखी
जिसे हाथ में आहिस्ते-से उठाते हुए भी डरता रहा मैं,
तो कभी इतनी बड़ी लगी
कि मेरे हाथ छोटे पड़ गए उसे थामने के लिए!
मैंने जाना कि सर्जना की आँखें ब्रह्मा की बूढ़ी पलकों को पहचानती हैं,
अनादि काल से।
मैं एक दिन एक महाप्राण कविता लेकर लौटूँगा तुम्हारे दरवाज़े पर
तुम पूछोगी— “द्वारे कः तिष्ठति?”
मैं “अस्ति कश्चिद् वाग्विशेषः” कहने का दुस्साहस करने के बजाय
पुकार लूँगा तुम्हें किसी पुराने-पहचाने सम्बोधन से,
किन्तु तब तक मेरी प्रतीक्षा करोगी?
कि तुम्हारी प्रतीक्षाओं का आभारी रहूँगा उम्र-भर।
अपने प्रेम की थाली में
मेरी प्रतीक्षा का अ-क्षत सिन्दूर सजाए बैठी रहोगी आजीवन तुम?
तुम्हारी स्वीकारोक्ति या इंकार से निरपेक्ष
तुम्हारा आभारी रहूँगा मैं।

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प्रांजल राय
बैंगलोर में सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में कार्यरत | बिरला प्रौद्योगिकी संस्थान से बी.टेक. | वागर्थ, कथादेश, पाखी, समावर्तन, कथाक्रम, परिकथा, अक्षरपर्व, जनसंदेश-टाइम्स, अभिनव इमरोज़, अनुनाद एवं सम्प्रेषण आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित

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