घर में आख़िरी रात। समान लगाने की प्रक्रिया में भावनाओं को रोकना एक मुश्किल काम है। भावनाएँ जो इतने दिन दिल्ली में रहने से कोमा में चली जाती हैं, उन्हें घर आकर फिर से हिलने-डुलने की उम्मीद मिलती है। यहाँ सब एक-दूसरे के लिए जीते हैं। अपना-अपना राग नहीं किसी का। एक की समस्या सब की सी होती है। मैं ख़ुद को मिल रहे इतने प्रेम को समेटने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ। कपड़ों की सारी सिलवटें माँ के हाथ की गर्मी ख़त्म कर देती हैं। पापा अपनी आदतों से इस क़दर मजबूर हैं कि आज भी जल्दी सो गए हैं। ख़ैर, सूटकेस कल के लिए तैयार है। आख़िरी शर्ट रखने के साथ ही वो उमस, वो नमी, वो प्यार सब सूटकेस में क़ैद हो जाता है।
बाहर के कमरे से आवाज़ आती है, “अलार्म लगा लेना वर्ना कल भी नहीं निकल पाओगे।”
मैं दो-तीन दिन से रोज़ यही कर रहा हूँ—कह देता हूँ कि कल जाऊँगा और सोता रहता हूँ सुबह तक। इस बार भी हर बार की तरह दिल्ली लौटने में दिलचस्पी नहीं है। वहाँ के लोग अपने नहीं हैं। कुछ हैं लेकिन यहाँ उनका ज़िक्र ज़रूरी नहीं।
अलार्म बजता है, मम्मी चाय बनाने लगती हैं, मैं तैयार होता हूँ, पापा टहलने निकल गए हैं। पता नहीं आख़िरी वक़्त गुज़ारना नहीं चाहते या अपने रूटीन को लेकर थोड़े अधिक ही रूढ़िवादी है। ठीक उसी तरह जैसे गांधी सत्य के प्रति थे। बुन्देलखण्ड के पिताओं का कुछ यूँ ही हाल है। अफ़सर बन जातें हैं पर रहते ठेठ हैं।
चलने का वक़्त है। माँ पहले आगे के गेट से, आँखों से जब तक ओझल न हो जाऊँ, तब तक देखती हैं और फिर एक आख़िरी बार पीछे के दरवाज़े से। अब मैं ओझल हूँ। माँ कहती हैं कि पीछे मुड़कर देखने से आदमी पत्थर का हो जाता है तो मैं आगे बढ़ता रहता हूँ।
आगरा-दिल्ली-नोएडा
आगरा-दिल्ली-नोएडा
आगरा-दिल्ली-नोएडा
के शोर से पूरा बस अड्डा सराबोर है।
कहाँ जा रही है बस?
आपको कहाँ जाना है?
गोल्फ़ कोर्स।
जाएगी साहब, आइए बैठिए! पीछे निकल जाइए, पूरी ख़ाली है।
मध्यमवर्गीय चेहरों के बीच ‘एक्सक्यूज़ मी’ जैसा शब्द सारा ध्यान मेरी ओर केंद्रित कर देता है। हालाँकि यह बात अलग है कि इस शब्द को सीखने के पीछे एक विशुद्ध मध्यमवर्गीय कहानी है। उसका ज़िक्र फिर कभी।
इस वर्ग के लोग लगभग समान तरह का आर्थिक व सामाजिक ताना बाना बुनते हैं। और कोई किसी पर बस इसी बात की धौंस दिखाता है कि परिवार का एक सदस्य सरकारी नौकरी पर है। आठ सौ की शर्ट पहनने वाला छः सौ की शर्ट पहनने वाले को कीड़ा समझता है। अन्तर बस दो सौ रुपये का है लेकिन खाइयाँ पैदा करता है। दो बार सीट बदलकर देख ली और बैठ गया कि पीछे से आवाज़ आयी, “दो सौ सत्तर रुपये भैया। गोल्फ़ कोर्स जाओगे ना?” कंडक्टर पूछता है।
कंडक्टर को देखता हूँ तो कहीं सुना या पढ़ा शेर याद आ जाता है कि— “कंडक्टर की ज़िन्दगी भी अजब है, रोज़ का सफर है और जाना भी कहीं नहीं।”
“दो वाली सीट पर बैठो न, पता नहीं कैसी सवारी बैठ जाएगी।” एक महिला अपने पति से कहती है।
‘भाई साहब, आप बग़ल की सीट पर बैठ जाओ, साथ में लेडीज़ है।’ किसी भी सरकारी बस में बैठें आप तो यह सुनना आम बात है। उत्तम प्रदेश की कुछ निशानियों में से है यह।
पलायन के इस दौर में जब हम सब रोज़गार की तलाश में महानगरों के लिए अग्रसर हैं, ये कुछ ऐसी चीज़ें हैं जिनकी कमी कभी-कभी महसूस होती है।
आगरा से बाहर नोएडा दिल्ली एक्सप्रेस-वे है। प्रतिदिन इस रास्ते में मरने वालों की संख्या दस है। कारण कई हो सकते हैं पर कोई सरकारी उपाय नज़र नहीं आता। नज़र आते हैं तो टोल टैक्स और उनके चारों तरफ़ होटल और ढाबे और जनसुविधा केंद्र जहाँ पर सरकारी बसें कभी रुक पाएँ। क्योंकि बस में सवार व्यक्ति पेशाब करने के लिए पाँच रुपये नहीं देना चाहता। देश को समानांतर विकास की ज़रूरत है।
महिला आरक्षित सीट पर पुरुषों को सोते हुए देखना निराशनजनक है। माननीय सांसद एवं विधायक आरक्षित सीटें भी हैं जिन पर शायद कभी कोई सांसद आकर बैठे।
विकलांग अब दिव्यांग बन गया है।
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