बहुत बुरा वक़्त है। ऐसा लगा था सब ठीक होने वाला है। लेकिन बुरा वक़्त इतनी जल्दी पीछा कहाँ छोड़ता है? श्मशान लाशों से पटे हुए हैं। धू-धू करके जलती लाशें उन लोगों की हैं जिन्हें अंतिम क्षणों में परिचितों का स्पर्श नसीब नहीं हुआ। उन्हें कुछ कहना होगा लेकिन वे कह नहीं पाए होंगें। अख़बारों, न्यूज़ चैनलों में आँकड़े दिखाए जा रहें हैं। पक्ष-विपक्ष लड़ रहा है। मैं भी लड़ रहा हूँ, ख़ुद से, इस वक़्त से और अपने सपनों से। दीवार पर पिछले साल का कैलेंडर अभी तक टँगा हुआ है। साल बीत गया, मार्च का महीना अब भी चुभ रहा है। पिछला फाल्गुन स्याह और सफ़ेद रंगों के तिलिस्म के साथ आया था। मैं अब तक उस तिलिस्म में फँसा हुआ हूँ। सब कुछ दोहरा रहा है।
समय बेरहम हो चला है। सम्भावनाओं की सूची में मृत्यु सबसे ऊपर है। मैं कहाँ हूँ?
हर सुबह, हर साँझ, हर रात मैं ख़ुद को ही दोहरा रहा हूँ। ख़ुद को दोहराने से बुरा कुछ भी नहीं है। ख़ुद को दोहराते हुए ऐसा लग रहा है जैसे मैं रोज़ मर रहा हूँ। जिगर मुरादाबादी ने क्या ख़ूब कहा है:
“मौत क्या एक लफ़्ज़-ए-बे-मअ’नी
जिसको मारा, हयात ने मारा।”
* * *
“हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती…”
मिर्ज़ा ग़ालिब ने इस शे’र में जो फ़रमाया है, वह आज की स्थिति पर बड़ा ही माक़ूल बैठता है। शब्द, अर्थ और जीवन के बीच संगति बैठाने की कोशिश कर रहा हूँ। पंक्तियाँ छिटक रही हैं उसी तरह जैसे तालाब में हाथ से छिटकती हैं मछलियाँ। कितना कुछ अधूरा है जिसे पूरा करना है। मन में बहुत शोर है। बहुत ही असहाय महसूस कर रहा हूँ। अनिर्णय की स्थिति ने चिड़चिड़ा बना दिया है। रोज़ एक वादा कर रहा हूँ ख़ुद से और अगले ही दिन मुकर जा रहा हूँ। सब कुछ बेतरतीबी की इंतहा तक बेतरतीब है। मैं, मेरी ज़िन्दगी, मेरा कमरा, किताबें सब कुछ। नींद आती नहीं, ज़बरदस्ती आँखें मींचकर सोने की असफल कोशिश करता हूँ। मैं अंधेरे को ताकता हूँ। अंधेरा मुझे ताकता रहता है। रात-दिन का फ़र्क़ मिट गया है इन दिनों। घड़ी रुक गई थी पिछले दिनों। कल याद से बैटरी बदली है। फिर से बालकनी में बैठना शुरू किया है मैंने। पत्ते टूट-टूटकर फ़र्श पर गिरते रहते हैं। कभी-कभी रात में कुत्ते रोते हैं। कुत्तों का रोना डराता है। माँ कहती हैं, कुत्तों का रोना अपशकुन होता है। ज़िन्दगी एक कमरे में सिमट गई है। अकेले बैठकर खाना बहुत अजीब है। इस अजीबियत को दूर करने के लिए खाते समय किसी को कॉल कर लेता हूँ। हाँ, उन्हें जिनकी प्राथमिकताओं में मैं शामिल हूँ। जो मुझे तरजीह देते हैं। बहुत कुछ सीखा है मैंने साल-भर में। बुरा वक़्त बहुत कुछ सीखा जाता है।
यह समय आँकड़ों में चल रहा है। लेकिन हमें इंसान के रूप में दर्ज होना है।
* * *
उदासी का रंग कैसा होता है? मुझे नहीं पता। हाँ, इतना समझ सका हूँ कि उदासी अच्छी नहीं होती। इस बात को समझने में भी मुझे काफ़ी वक़्त लग गया। कुछ लोग खुली किताब की तरह होते हैं। मैं वैसा बिल्कुल भी नहीं हूँ। जो मुझे समझते हैं, उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि मैं बन्द लिफ़ाफ़े में रखे ख़त जैसा हूँ। मुझे जानने के लिए आपको लिफ़ाफ़ा खोलना होगा। बहरहाल, यह दावा करना कि आप किसी को समझते हैं, यह एक तरह का भ्रम है। आप किसी को उतना ही समझ सकते हैं जितनी आपकी समझ है। आपकी समझ आपकी परवरिश और आपके परिवेश का प्रतिफल है। मेरी माँ अक्सर कहती हैं—औरतें ढाल लेती हैं ख़ुद को प्रतिकूल परिवेश में…
चिड़ियों के पंख होते हैं। इसलिए चिड़ियों को उड़ते देखना मुझे बहुत अच्छा लगता है। मैं उन्हें बहुत उम्मीद से देखता हूँ।
मैं इंतज़ार कर सकता हूँ शजर की तरह। इंतज़ार—कितना सुंदर शब्द है। जब आप किसी का इंतज़ार कर रहे होते हैं या फिर किसी चीज़ के होने का इंतज़ार कर रहे होते हैं यक़ीन मानिए उस समय आप इस ख़ूबसूरत शब्द में अपना अर्थ भर रहे होते हैं। शब्द में अर्थ भरने से ज़्यादा सुंदर क्या है? आपका अपना अर्थ, सबसे अलहदा। भीड़ से अलग। अपनी निजता में अखण्डित। महामारी के इस दौर में पूरी दुनिया इंतज़ार में ही तो है। सब कुछ ठीक होने का इंतज़ार। मुस्कुराहटों के लौटने का इंतज़ार। दुःस्वप्नों के भार से मुक्त होने का इंतज़ार।
मुझे उस शहर को जाना है
कोई वहाँ
मेरा इंतज़ार कर रहा होगा
यहाँ नहीं रहा कोई
अब मुंतज़िर मेरा
मुझे यहाँ से लौटना होगा।
* * *
“उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है”
बाकमाल मेहबूब शायर मिर्ज़ा ग़ालिब के इस शे’र को अपनी ही आवाज़ में अपने ही कानों से सुनते हुए मेरी नींद टूटी। सपनों की दुनिया भी न कितनी विचित्र होती है। कई बार तो ऐसा मालूम होता है कोई फ़िल्म चल रही हो। जब भी मुझे सपने पकड़ लेते हैं मैं बहुत देर तक सोया रहता हूँ। पिछला साल दुःस्वप्नों को झेलते हुए गुज़रा। यह साल भी कमोबेश वैसा ही बीत रहा है। सपनों में अपने प्रिय को खो देना भी वैसे ही रुलाता है जैसे कोई रोता है चेतनावस्था में। कितनी ही बार डरते हुए सपनों को धक्के मारकर जगा हूँ। कितनी ही बार यह जानकर तसल्ली हुई कि बुरा ख़्वाब था। सचमुच हमारा अवचेतन हमें कितनी अच्छी तरह से समझता है। हमारे डर, हमारी ख़ुशी, हमारी इच्छाएँ, हमारे परिवेश, हमारे दोस्त, हमारे अपने सबके बारे में पता होता है उसे। उसे पता है वह भी जो अव्यक्त है। सपनों का गणित हमारी ज़िन्दगी के समीकरण से सुलझता है। मैं कभी-कभी सोचता हूँ वे कैसे लोग होते होंगे जिन्हें सपने नहीं आते। मैं तो समझता हूँ सपने भी उतने ही ज़रूरी हैं जितनी नींद। सपने तो आने ही चाहिए।
हमारे स्वप्न हमारी नींद की उपलब्धि हैं और हमारी नींद हमारे दिन का पारिश्रमिक।
यूँ तो हर रोज़
सूरज नींद से जगाने चला आता है
अपनी मीठी किरणों के साथ
चिड़ियों की चहचहाहट लिए
मगर तुम्हारा
मेरे माथे को चूमकर जगाना
देखा गया
अब तक का सबसे ख़ूबसूरत ख़्वाब है।
* * *
कल चाँद अपने पूरे शबाब पर था। रात बहुत देर तक बालकनी में बैठा रहा मैं। हवाई जहाज़ शोर करता हुआ अपने नियमित अंतराल पर गुज़रता रहा। कई दिन हो गए हॉस्टल से बाहर नहीं निकला हूँ। हर रात विश्वविद्यालय प्रशासन परिसर में महामारी से जुड़ी चेतावनी और सम्बन्धित सलाह की मुनादी करता है। यह सब डरावना है। आँकड़े रोज़ बढ़ रहे हैं। स्थिति बहुत नाज़ुक है। सड़कें वीरान हैं। इस भयावह सन्नाटे में कोयल का कूकना अच्छा है। मोर का बोलना सुंदर है। एक बिल्ली है जो मेरे कमरे में ताक-झाँक करती रहती है। बालकनी में रखे कूलर के ऊपर उसने अपनी ख़्वाबगाह बना ली है। वह रात में वहीं सोती है। एक कुत्ता है जिसे मैं पिछले साल-भर से देख रहा हूँ। उसे जब भी देखता हूँ वह सोया रहता है। कभी वाशरूम के फ़र्श पर तो कभी सीढ़ियों पर। उसकी उदासीनता मन को चोट करती है। बाहर कितना कुछ घट रहा है। मन कितना भारी हो जाता है कभी-कभी। मैं थक गया हूँ ख़ुद से लड़ते हुए। ख़ुद से लड़ना बहुत मुश्किल है। आप जीतकर भी हार जाते हैं। मैंने सब कुछ वक़्त पर छोड़ दिया है अब।
कभी-कभी आईने के सामने खड़े होकर हँसता हूँ। आईना भी मुझ पर हँसता है। हम दोनों एक-दूसरे को न जाने कब से देख रहे हैं।
कभी-कभी डर लगता है कि ग़लत उदाहरण न बन जाऊँ। हाथ जब ख़ाली होता है हाथ की लकीरें भी आप पर हँस रही होती हैं। मुझे जब भी ऐसा महसूस होता है अपनी ख़ाली हथेली को अपनी दूसरी हथेली से भर देता हूँ। आजकल महाकवि टैगोर का प्रसिद्ध गीत बराबर सुन रहा हूँ। उनका यह गीत हौसला देता है:
“जोदि तोर दक शुने केऊ ना ऐसे
तबे एकला चलो रे।
एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे!”
* * *
फाल्गुन बीत गया बे-रंग। नीम झरकर फिर से हरा हो गया है। बोगनवेलिया ने ओढ़ा था गुलाबी रंग। धीरे-धीरे वह उतर गया है। कुछ हफ़्तों बाद अमलतास खिलेगा। उसके झूमर का रंग। आह! मेरे ख़्वाब का रंग। पिछले साल कहाँ खिला था अमलतास? हो सकता है कि खिला हो, या हो सकता है कि उसका चटक पीलापन मेरी आँखों के सूनेपन से सहम गया हो। होने को कुछ भी हो सकता है। इस हताश दौर के बारे में भी कहाँ सोचा था? कहाँ सोचा था कि मृत्यु शोक ज़्यादा ख़ौफ़ का विषय बन जाएगी? आबोहवा में चुभने वाली निस्तब्धता है। दिन सिर्फ़ कैलेंडर पर बदल रहा है। दिशाएँ खो गयी हैं। प्रार्थनाएँ अनसुनी रह जा रही हैं। आस्थाएँ खण्डहर हो गई हैं। विसंगतियों ने संगीत को डस लिया है। अंधेरा बढ़ता ही जा रहा है। मैं ख़ुद को टटोलता हूँ। स्पर्श के चिह्न मिट गए हैं। देह अस्पृश्य हो गई है। फिर से।
कोरोना की वजह से कल हमारे हॉस्टल के केयरटेकर की मृत्यु हो गई। मेस में जाकर खाना लाने का मन नहीं हो रहा था। मृत्यु आख़िर शोक का विषय है। मुँह पर मास्क चढ़ाए अपने-अपने टिफ़िनों में खाना लेकर अपने कमरे में लौटते छात्र सुरक्षित कोना ढूँढ रहे हैं। घर लौटना एक विकल्प है लेकिन सबको पता है कि वह आख़िरी विकल्प है। स्थायी पता नौकरी के फ़ॉर्म पर भरा जाने वाला गाँव, मोहल्ला, ज़िला और पिनकोड भर तो नहीं होता है न। सब जगह से हारकर आदमी वहीं तो लौटता है। लेकिन हम लड़ रहे हैं—अपने अकेलेपन से, अपनी उदासी से, अपने डर से, इस समय से। इस उम्मीद में कि इस रात की सुबह ज़रूर होगी।
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